________________
साधक के कर्तव्य
३३३
प्रौढ़ावस्था में पुण्य का संचय नहीं कर पाता है तो फिर वृद्धावस्था में क्या कर सकेगा?
यहाँ एक बात ध्यान में रखने की है कि वैसे तो मनुष्य ये सब कार्य सभी अवस्थाओं में कर सकता है और करना भी चाहिए किन्तु बुद्धि और शक्ति आदि विशिष्ट गुणों को देखते हुए ही साधारणतया यह विभाजन किया गया है । हम देखते ही हैं कि बाल्यावस्था में बालक की बुद्धि तीव्र होती है, अतः वह ज्ञानार्जन कर सकता है किन्तु शारीरिक शक्ति अधिक न होने से और सांसारिक दृष्टि से व्यवहार-कुशलता एवं विचारों की परिपक्वता न होने से वह धनोपार्जन नहीं कर पाता। इसी प्रकार युवावस्था में धनोपार्जन तथा अन्य गार्ह स्थिक जिम्मेदारियों के कारण बालक के समान पूर्ण निश्चित और निराकुल रहकर ज्ञानार्जन नहीं कर सकता। रही बात तीसरी अवस्था में दानादि के द्वारा पुण्य-संचय की। तो वह भी व्यक्ति तभी कर सकता है जबकि युवावस्था में वह धन का उपार्जन करे तथा अपने बाहुबल से उपाजित धन को शुभ-कार्यों में लगाए । अन्यथा दूसरों का मुंह ताकने से क्या बनेगा? किसी और के द्वारा कमाये हुए धन से पुण्य-संचय करने की उसकी अभिलाषा कभी पूरी नहीं हो सकेगी और इसके लिए धन देगा भी कौन? कहने का अभिप्राय यही है कि उसे स्वयं पुरुषार्थ करना चाहिए और उससे अर्जित धन को शुभ-कार्यों में लगाकर पुण्य संचित करना चाहिये।
चौथी अवस्था वृद्धावस्था होती है। इस अवस्था में आप जानते ही हैं कि व्यक्ति शारीरिक दृष्ठि से कमजोर हो जाता है, इन्द्रियाँ पूरा काम नहीं करतीं और उसके परिणामस्वरूप न वह ज्ञान प्राप्त कर सकता है, न धन कमा सकता है और न ही धर्म क्रियायें यथाविधि करने में समर्थ रह जाता है। इसलिए वृद्धावस्था आने से पहले ही उसे जितना भी हो सके ज्ञानार्जन, दान-पुण्य और धर्म-ध्यान करना चाहिए।
। जो व्यक्ति व्रत, नियम, प्रत्याख्यान एवं अन्य धर्मक्रियाएँ करने के लिये कल, परसों, अगले महीने, अगले वर्ष और यहाँ तक कि वृद्धावस्था में करेंगे ऐसा कहकर बहाने बनाया करते हैं, वे अपना जीवन प्रमाद ही प्रमाद में निरर्थक गँवा देते हैं और अन्त में पश्चात्ताप के अलावा कुछ भी हासिल नहीं कर पाते । इसलिए हमारे धर्म-शास्त्र पुकार-पुकार कर कहते हैं कि
तूरह धम्म काउं, मा हु पमायं खणं वि कुश्वित्था । बहुविग्यो हु मुहुत्तो, मा अवरोहं पडिच्छाहि ॥
-बृहत्कल्पभाष्य ४६७५ अर्थात् धर्माचरण के लिए शीघ्रता करो, एक क्षण भी प्रमाद मत करो। जीवन का एक-एक क्षण विघ्नों से भरा है, इसमें संध्या की भी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org