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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
पूज्य श्री त्रिलोकऋषि जी म० ने कषायों को लेकर एक बड़ा सुन्दर एवं प्रेरणात्मक पद्य लिखा है । वह इस प्रकार हैप्रेमशी जुझारशी वश किया जीवराज,
__ मानसिंह मायादास मिल्या चारों भाई है। करमचन्द जी काठा भया, रूपचन्द जी सूं प्यार,
धनराज जी की बात चाहत सदाई है ॥ ज्ञानचन्दजी की बात, सुने न चेतनराज,
__ आवे नहीं दयाचन्द सदा सुखदायी है। कहत त्रिलोकरिख, मनाय लीजे प्रेमचन्द,
नहीं तो कालूराम आया विपत्ति सवाई है ॥ कच्छ देश में किसी के भी नाम के आगे 'शी' लगाने की प्रथा है। कवि ने भी यहाँ कषायों के आगे 'शी' लगाकर पद्य को आध्यात्मिक होते हुए भी रोचक बना • दिया है । यहाँ पर प्रेमशी से आशय है लोभ और जुझारशी से क्रोध । कवि का कहना है कि क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चारों भाइयों ने मिलकर जीवराज अर्थात् आत्मा को घेरकर अपने वश में कर लिया है। परिणाम यह हुआ कि करमचन्द जी की पाँचों अंगुलो घी में हो गई हैं। यानी आत्मा को कर्मों ने खूब अच्छी तरह से जकड़ लिया है।
आत्मा को बन्धन में डालने वाले कषाय ही हैं। इनकी तारीफ तो यह है कि इन चारों में से कोई एक भी अगर मन में किसी तरह प्रवेश कर लेता है तो अन्य तीनों को भी झट अपने पास बुला लेता है।
साधारणतया हम देखते हैं कि सांसारिक प्राणियों में से कोई एक जहाँ अपना अड्डा जमा लेता है, वहां दूसरे को फटकने देना भी नहीं चाहता। पेड़ों पर पक्षी घोंसले बनाते हैं पर अगर दूसरा पक्षी उनके घोंसले में आकर बैठ जाय तो उसी क्षण घोंसले में रहने वाला पक्षी चोंच मार-मारकर उसे भगा देता है। आप लोग भी रेलों और मोटरों में सफर करते हैं तथा सभी लोग टिकटों के उतने ही पैसे देते हैं । पर जो व्यक्ति उनमें पहले ही जाकर बैठ जाते हैं वे बाद में आने वालों को फूटी आँखों देखना भी पसन्द नहीं करते तथा खिड़कियों में बैठे रहकर ही बाहर वालों से कह देते हैं-'यहाँ जगह नहीं है, आगे देखो।'
किन्तु कषाय एक-दूसरे से कभी यह नहीं कहते, उलटे स्वयं अड्डा जमा कर जल्दी से जल्दी अपने अन्य साथियों को भी निमन्त्रण देकर बुला लेते हैं । परिणाम यही होता है कि इन चारों से जूझने में आत्मा असमर्थ हो जाती है और कर्मों का बन्धन वेग से होने लगता है । अपनी अज्ञानता के कारण यानी अपनी शक्ति को न
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