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सम्मान की आकांक्षा मत करो
अभिमान निहित होता है और अभिमान के रहते हुए मुनि संवर की आराधना नहीं कर सकता अथवा साधना पथ पर सुगमता से अग्रसर नहीं हो सकता। इस विषय पर एक छोटा सा दृष्टान्त है
किसे नमस्कार किया ? एक गुरु और उनका शिष्य, दोनों मार्ग पर चल रहे थे कि सामने से आते हुए किसी श्रद्धालु भक्त ने उन्हें देखकर नमस्कार किया ।
भक्त के नमस्कार करने पर गुरु समझे कि इस व्यक्ति ने मुझे नमस्कार किया है और शिष्य ने समझा मुझे । गुरुजी से रहा नहीं गया अतः अपने शिष्य से बोले
"यह व्यक्ति बड़ा ही श्रद्धालु दिखाई देता है क्योंकि रास्ते में भी मुझे नमस्कार करता हुआ गया है।"
गुरु की बात सुनकर शिष्य का भी अहंभाव स्थिर नहीं रह सका। वह भी बोल पड़ा
"मुझे तो लगता है कि यह व्यक्ति विद्वान है और मेरी विद्वत्ता का अनुमान करके मुझे ही नमस्कार कर गया है।"
वस्तुतः गुरुजी बड़े थे पर विद्वत्ता की दृष्टि से शिष्य अधिक पढ़-लिखकर अपने आपको गुरु से अधिक ज्ञानी समझता था। और इसीलिए एक में बड़प्पन का तथा दूसरे में विद्वत्ता का अहंकार था। परिणाम यह हुआ कि अभिमान रूपी दोनों हाथी आपस में भिड़ गये और दोनों अपने आपको शक्तिशाली साबित करने का प्रयत्न करने लगे। किन्तु जब इसका कोई सही फल नहीं निकला तो अन्त में यही निश्चय किया गया कि नमस्कार करने वाले व्यक्ति से ही पूछा जाय कि उसने किसे नमस्कार किया है।
तय होते ही गुरुजी और चेलाजी, दोनों ही अपने गन्तव्य की दिशा को छोड़ कर उलटे पैरों लौट पड़े। नमस्कार करने वाला व्यक्ति अधिक दूर तो पहुँचा नहीं था अतः शीघ्र ही उन्होंने उसे जा पकड़ा और पूछा
"माई ! तुमने हम दोनों में से किसे प्रणाम किया था ?"
श्रद्धालु राहगीर इस प्रश्न को सुनकर अवाक रह गया और कुछ क्षण मौन रहकर उनके प्रश्न की तह को टटोलने लगा। पर वह विवेकी और बुद्धिमान था, अतः शीघ्र ही समझ गया कि गुरु और शिष्य दोनों ही अभिमान के हाथियों पर विराज रहे हैं । उन्हें सबक देने के लिए वह गम्भीरता पूर्वक बोला
___"मैंने उसे नमस्कार किया है जो साधनापथ पर चलने वाला सच्चा साधु है।"
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