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आर्य धर्म का आचरण
२८१ के भेद विज्ञान या सम्यक् ज्ञान के बिना वहाँ भी लेशमात्र सुख प्राप्त नहीं कर सका है।
इसलिए कवि पुनः-पुनः मुमुक्षु प्राणी को उद्बोधन देता हुआ कहता है
तातें जिनवर-कथित तत्व अभ्यास करीजे ; संशय, विभ्रम मोह त्याग, आपो लख लीजे । यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनिरू जिनवानी;
इह विधि गए न मिल, सुमणि ज्यों उदधि समानी॥ कवि का कथन है- "अरे मानव ! सम्यक् ज्ञान के बिना कोई भी व्यक्ति अपने निर्दिष्ट लक्ष्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं करता, इसलिए तू जिन भगवान द्वारा प्ररूपित सच्चे तत्वों का पठन-पाठन एवं उन पर चिन्तन-मनन कर, ताकि स्व और पर के भेदविज्ञान को समझ सके । साथ ही अपने अन्दर रहे हुए संशय, विपर्यय एवं मोहादि का त्याग करके अपनी आत्मा की पहचान कर । ऐसा करने पर ही उसमें रही हुई अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान एवं अनन्त सुख को तू पा सकेगा।"
"भोले प्राणी ! तू यह कभी मत भूल कि यह मनुष्य जन्म, उत्तम कुल, उच्च जाति, आर्य क्षेत्र, आर्य धर्म तथा जिनवाणी सुनने का अवसर तेरे लिये सदा ही बना रहेगा या कि पुनः-पुनः प्राप्त होगा। ये सब सुयोग अगर निरर्थक चले गये तो फिर अनन्त काल तक भी इनका फिर से प्राप्त करना दुर्लभ हो जाएगा, जिस प्रकार अमूल्य रत्न समुद्र में खो जाने पर मिलना कठिन हो जाता है।"
बन्धुओ ! ज्ञान का माहात्म्य अवर्णनीय है। इसके बिना मनुष्य पथभ्रष्ट होकर सन्देह और भ्रम के कंटकाकीर्ण मार्ग पर भटक जाता है। परिणाम यह होता है कि वह धर्म के नाम पर पूजा, पाठ, जप एवं तपादि अनेकानेक क्रियायें करता भी है किन्तु उनसे कोई लाभ हासिल नहीं कर पाता। उसकी वे समस्त क्रियायें मक्खन के लिए पानी को बिलौने के समान और बालू रेत को पीलकर तेल निकालने के समान व्यर्थ चली जाती हैं। किन्तु इसके विपरीत अगर वह एक बार सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति कर लेता है तो विभिन्न परिस्थितियों के समक्ष आने पर भी और विभिन्न परिषहों के द्वारा मुकाबला किये जाने पर भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होता तथा मंजिल को प्राप्त कर ही लेता है।
श्री उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताते हुए एक बड़ी सुन्दर गाथा कही गई है। जिसमें ज्ञानी आत्मा के विषय में कहा है
जहा सूई ससुत्ता पडियावि न विणस्सइ । एवं जीवे ससुत्ते संसारे न विणस्सइ ।
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