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________________ २५ आर्य धर्म का आचरण धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! बहुत दिनों से हमारा संवर तत्व पर विवेचन चल रहा है । संवर के सत्तावन प्रकार होते हैं और उसके छब्बीसवें भेद यानी अठारहवें 'जल्ल परिषह' का वर्णन पिछले दो दिनों से किया जा रहा है । 1 कल श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दूसरे अध्याय की सैंतीसवीं गाथा मैंने आपके सामने रखी थी । जिसमें भगवान महावीर ने मुमुक्षु प्राणियों को उपदेश दिया है कि अगर कर्मों की निर्जरा करनी है तो आर्य धर्म का शरीर रहते पालन करो । आर्य धर्म भी कैसा ? अनुत्तरम् अर्थात् जिससे बढ़कर और कोई धर्म नहीं है । ऐसे धर्म की महत्ता का वर्णन शब्दों के द्वारा नहीं किया जा सकता । शास्त्र कहते हैं I दिव्वं च गई गच्छन्ति चरित्ता धम्ममारियं । - उत्तराध्ययन सूत्र आर्य धर्म का आचरण करके महापुरुष दिव्य गति को प्राप्त होते हैं । तो धर्म से बढ़कर इस संसार में और कुछ नहीं है, जो आत्मा का भला करने में समर्थ हो सके । इसीलिए कहते हैं - 'लोकस्स धम्मो सारो ।' इस संसार में अगर कोई सारभूत पदार्थ है तो वह एकमात्र धर्म ही है । वैसे भी कीमत सारभूत वस्तु की होती है । अनाज की कीमत होती है भूसे की नहीं; क्योंकि वह सारहीन होता है । इसी प्रकार विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों में सारभूत केवल धर्म है और अन्य सब सारहीन । इसीलिए प्रत्येक प्राणी को सच्चे धर्म का अनुसरण करना चाहिए । धर्म के तीन प्रकार हैं-ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र ज्ञान से समझा, दर्शन से उस पर श्रद्धा रखी और चारित्र के द्वारा अमल में लाया गया तो धर्म सच्चे अर्थों में ग्रहण किया गया है, ऐसा कहा जा सकता है । अभी मैंने बताया कि लोक में सारभूत पदार्थ क्या है ? बताया गया है कि लोक में सारभूत पदार्थ केवल धर्म है । अब Jain Education International For Personal & Private Use Only ज्ञान का माहात्म्य इस प्रश्न के उत्तर में दूसरा प्रश्न होता है www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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