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आनन्द प्रवचन | छठा भाग
अर्थात्-हजारों वर्षों तक तप करने पर भी अज्ञानी जितने कर्मों का क्षय नहीं कर पाता, उतने कर्मों को ज्ञानी एक श्वास मात्र में ही नष्ट कर देता है ।
___इसलिये जो साधु समभाव एवं ज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण परिषहों को सहन करते हुए शरीर के ममत्व का त्याग कर अपने शरीर की प्रस्वेदजन्य मल सहित स्थिति बना लेते हैं वे निस्संदेह महान कर्मों का नाश करके उस उत्कृष्ट स्थिति पर जा पहुँचते हैं जो मोक्ष में सहायक बनती है । उनकी कर्म-निर्जरा सकाम-निर्जरा कहलाती है, अकाम-निर्जरा नहीं । अकाम निर्जरा करने से भले ही जीव को स्वर्ग-सुख हासिल हो जाय, किन्तु न उसे वहाँ सच्चा सुख मिलता है और न ही जन्म-मरण से मुक्ति की संभावना ही रहती है । कहा भी है
कभी अकाम निर्जरा करे, भवनत्रिक में सुरतन धरे ।
विषय चाह दावानल दह्यो, मरत विलाप करत दुख सह्यो ।
पद्य से स्पष्ट है कि अगर जीव कभी अकाम निर्जरा करता है तो उस निर्जरा के प्रभाव से भवनवासी, व्यन्तर अथवा ज्योतिषी देवों में से कोई देव बन जाता है। किन्तु वहाँ उसका हाल क्या होता है ? यही कि वहाँ भी वह पाँचों इन्द्रियों के विषयों की इच्छा रूपी अग्नि में झुलसता रहता है और जब वहाँ का आयुष्य पूरा होने को होता है यानी उसकी मंदारमाला मुरझाने लगती है तथा शरीर एवं आभूषणों की कान्ति मलिन होने लगती है तो वह अपने अवधिज्ञान के द्वारा मृत्यु काल निकट समझ कर अत्यन्त दु:खी होता है और नाना प्रकार से विलाप करता हुआ कर्मों का भार बढ़ा लेता ।
इसी कारण भगवान का आदेश है कि साधु कभी शीतोष्ण आतापादि से खिन्न न हो, भूख और प्यास के परिषहों से विचलित न हो तथा शरीर चाहे प्रस्वेद, रज एवं मल आदि से कितना भी लिप्त क्यों न हो जाय, उसे धोकर स्वच्छ करने की अभिलाषा न करे। वह सदा यही चिन्तन करे कि इस शरीर के नव द्वार तो सदा चलते रहते हैं अतः हजार बार धोने पर भी इसे शुद्ध नहीं किया जा सकता। शरीर का तो निर्माण ही कैसी अशुद्ध वस्तुओं से हुआ है, इस विषय में कहा गया है--
रुधिर, मांस, चर्बी पुरीष की है थैली अलबेली, चमड़े की चादर ढकने को सब शरीर पर फैली,
प्रवाहित होते हैं नव द्वार, हंस का जीवित कारागार ।। कल भी मैंने कवि के कथाननुसार कहा था कि आत्मा रूपी हंस के लिए कारागार के समान जो शरीर है, वह समुद्र का सम्पूर्ण जल लेकर धोने पर भी कभी शुद्ध नहीं हो सकता।
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