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________________ क्यों डूबे मझधार ? नाई घबरा गया और कुछ बोल नहीं सका । तब जाट ने उसे पकड़ लिया और एक वृक्ष से बाँध दिया । नाई के दोनों साथी तब भी कुछ नहीं बोले क्योंकि एक तो देवता का पद पा गया था और दूसरा स्वामी के समान समझा गया था । पर जब जाट नाई से निबटा तो वह राजपूत के पास आया और उसे डाँटते हुए बोला - "ब्राह्मण मेरे गुरु हैं, वह चाहे जितने फल खा सकते हैं, पर तुम मेरे क्या लगते हो ? क्यों मेरे खेत में घुसे ?" राजपूत जाट की इस बात पर कुछ क्रोधित हुआ किन्तु चोरी करते रंगे हाथों पकड़ा गया था अतः अधिक विरोध करने का उसमें साहस नहीं रहा था । अवसर का लाभ उठाकर जाट ने उसे बलपूर्वक पकड़ लिया और खींच-खाँचकर उसे भी एक दूसरे वृक्ष के साथ बाँध दिया । २५७ इधर ब्राह्मण तो ब्राह्मण ही था । दो-दो बार की प्रशंसा से वह खूब मगन हो रहा था अतः राजपूत के बांध दिये जाने पर भी कुछ न बोला और उसके मोटे दिमाग में जाट की चतुराई नहीं घुसी । वह पूरी निश्चिन्तता से तरबूज खाने में लगा रहा । उलटे सोचने लगा- - " बँध जाने दो सालों को, अब तो मैं और भी आदरपूर्वक जाट का सत्कार प्राप्त करूँगा । क्योंकि मैं मेहमानदारी के लिए अकेला ही बचा हूँ ।" पर ब्राह्मण-देवता के मन की मन में ही रह गई और जाट राजपूत को भी खूब कसकर बांध चुका तो ब्राह्मण के पास आया तथा आंखें निकालकर बोला“अब तू बता कि मेरे खेत में क्यों घुसा ? क्या यह खेत तेरे बाप का है, जो आनन्द से ककड़ी, तरबूज खाने बैठ गया खाना ही था तो मुझसे मांग लेता । तू तो दान लेता है, फिर मेरे खेत में चोरी क्यों की ?" अब ब्राह्मण देवता क्या बोलते ? उनका देवत्व और गुरुत्व सब छिन गया, ऊपर से चोर की पदवी मिली। वैसे ही वे डरपोक थे और अब तो उनके दोनों साथी भी वृक्षों से बँधे हुए थे । किस बूते पर वे जबान खोलते ? जाट ने उन्हें भी तीसरे वृक्ष से बांधा और उसके बाद तीनों मेहमानों की डण्डे से पूरी खातिरी की । पिटतेपिटते जब उनकी अकल ठिकाने आई और वे बार-बार क्षमा माँगने लगे तो जाट ने उन्हें छोड़ा और खेत से बाहर निकाल दिया । तो बंधुओ, जाट के उदाहरण से मैं आपको यह बता रहा था कि उसने जिस प्रकार अपनी चतुराई और विवेक से स्वयं अकेले होते हुए भी तीन व्यक्तियों को परास्त कर दिया, उसी प्रकार आत्मार्थी साधक अपने साहस, बुद्धि और विवेक के द्वारा कषाय एवं राग-द्वेषादि आत्मा के समस्त शत्रुओं को जीत सकता है । पर इसके लिए अभ्यास की आवश्यकता है । अभ्यास करते-करते व्यक्ति अगर एक-एक दुर्गुण के पीछे पड़ जाय तो वह क्रमशः सभी को नियन्त्रण में रख सकता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004009
Book TitleAnand Pravachan Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1975
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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