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कषायों को जोतो!
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को सहा किन्तु तप के निमित्त से नहीं वरन् निर्धनता के कारण सहा । हमने ध्यान भी किया किन्तु परमात्मा का नहीं वरन् धन-वैभव, स्त्री-पुत्र एवं विषयसूख के ध्यान में ही अहर्निशि निमग्न रहे। इस प्रकार हमने कार्य तो सब मुनियों के समान किये, किन्तु उनके द्वारा मुनियों को जैसे फल प्राप्त होते हैं, वे फल हमें नहीं मिले हम सदा उनसे वंचित ही रहे।
आप समझ गए होंगे बंधुओ कि मुनियों या त्यागियों के समान त्याग होने पर भी उनका शुभ फल क्यों नहीं मिलता ? ___ इसीलिये कि, त्यागी वे कहलाते हैं जो शक्ति और सामर्थ्य होते हुए भी विषयों का त्याग करते हैं। वे त्यागी नहीं कहलाते हैं जो शक्ति-हीनता के कारण उन्हें छोड़ते हैं क्योंकि वे मन से नहीं अपितु लाचारी के कारण उन्हें छोड़ते हैं। इसी प्रकार निर्धनता के कारण हजारों कष्ट उठाने पर भी उनका कष्ट सहना तप नहीं कहलाता और न ही वह कर्मों की निर्जरा का कारण बन सकता है। कर्मों की निर्जरा तभी होती है जबकि इन समस्त सांसारिक सुखों और भोग विलासों को सामर्थ्य होने पर भी अनिष्टकारी समझकर स्वेच्छा से त्यागा जाय, धन के होने पर भी उसे पाप का मूल मानकर उसके प्रति रही हुई तृष्णा को नष्ट कर दिया, संयोग होने पर भी सर्दी, गर्मी, भूख एवं प्यास आदि के परिषहों को तप की दृष्टि से सहन किया जाय ।
जो साधक ऐसा करता है वह अपने इस अमूल्य जीवन को सार्थक बना सकता है। शुभ विचारों का जीवन में बड़ा प्रभाव पड़ता है और विचार शुभ तभी होते हैं जब मनुष्य कषायों को जीत लेता है। कषायों को जीत लेने वाला साधु-पुरुष समग्र विश्व को आनन्दमय मानता है और इसके विपरीतकषायों के कारण दूषित विचार वाला व्यक्ति जगत को दु खमय समझता है ।
फारसी के एक विचारक का कथन है जिसका भाव है कि
जिस मनुष्य के दिल के भाव बुरे हैं उसे समस्त जगत दुखमय प्रतीत होता है, किन्तु यदि उसके - भावों में पवित्रता है तो उसे सारा जगत प्रसन्नता से परिपूर्ण दिखाई देता है।
__ तो बंधुओ, हमें सदा कषायों से रहित पवित्रभावों का ही आश्रय लेना चाहिए तथा दुख को हृदय के समीप भी नहीं फटकने देना चाहिये । ऐसा करने पर ही हमारा भविष्य उज्ज्वल और आनन्दमय बन सकेगा।
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