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________________ कषायों को जीतो ! ३४१ .. कहाँ तक कहूं ? इस धन की प्राप्ति के लिए मैंने मन्त्रों को सिद्ध करना चाहा और रात-रात भर श्मशान में मुर्दो के पास अकेला बैठा हुआ मंत्र जपता रहा। किन्तु मुझे सदा निराश होना पड़ा और एक फूटी कौड़ी भी कहीं से मेरे हाथ नहीं लगी । इसलिए अरी तृष्णा ! अब तू मेरा पीछा छोड़ दे। .. __ सारांश यही है कि मनुष्य जब लोभ और तृष्णा के फेर में पड़ जाता है तो उसे धन मिले या न मिले उसकी लालसा कभी कम नहीं होती। निर्धन थोड़ा पाने के लिए लालायित रहता है और धनी पास में जितना होता है उससे भी अनेक गुना अधिक प्राप्त करने के लिए बावला रहता है। उसे इस बात का भान नहीं रहता कि धन-ऐश्वर्य, स्त्री, पुत्र, यौवन, स्वामित्व सभी अनित्य हैं। ये सब आज हैं पर संभव है कल न रहैं। आज इन सबका संयोग हुआ है पर कल वियोग भी हो सकता है। धन को कोई छीन सकता है, चुरा सकता है, व्यापारादि में घाटा आ जाने पर वह चला जा सकता है। इसी प्रकार सब नातेदार निर्धनावस्था के कारण मुंह मोड़ सकते हैं या मृत्यु को प्राप्त होकर भी हम से विलग हो सकते हैं । अतः अज्ञानी व्यक्ति अगर इनमें मोह और आसक्ति रखता है तो उसका यह लोक तो बिगड़ता ही है परलोक भी अंधकारमय और दुःख पूर्ण हो जाता है । इसलिये प्रत्येक बुद्धिमान और विवेकी पुरुष को संसार की असारता को समझकर किसी भी अनित्य पदार्थ के संयोग होने पर अपनी आत्मा के कल्याण का भाव नहीं भुलाना चाहिये । इस देह-रूपी मंदिर में उसकी आत्मा ही शुद्ध, एवं शाश्वत आनन्द को प्रदान करने वाली है अतः उसे संसार के रागद्वेष, आसक्ति तथा मोहादि से मलिन करना अज्ञान है। और इस अज्ञान को दूर करने के लिये हमें अपनी इन्द्रियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिये। मोह को विरक्ति से एवं लोभ को संतोष से जीतना चाहिये। सूत्रकृतांग में कहा गया है "संतोसिणो नो पकरेंति पावं ।" अर्थात्- संतोषी साधक कभी कोई पाप नहीं करते। जब हृदय में संतोष का आविर्भाव हो जाता है तो व्यक्ति चाहे निर्धन हो या धनी, वह प्रत्येक अवस्था में पूर्ण सुख का अनुभव करता है और वही साधुपुरुष अपनी आत्मा का कल्याण करने में समर्थ बनता है। संतोषी ही साधु कहला सकता है एक लघु कथा है कि, किसी राजा को उसके जन्म दिवस पर प्रजाजनों के द्वारा अनेक प्रकार की भेंट प्राप्त हुई। राजा बड़ा प्रजावत्सल और धर्मात्मा पुरुष था । उसने अपने मंत्री से कहा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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