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________________ कषायों को जीतो ! ३३६ इस प्रकार कोमलता और नम्रता से अहंकार को जीता जा सकता है । कोई भी गर्व की आदि की सकती । अन्यथा अहंकारी व्यक्ति त्याग, तपस्या, दान एवं पूजा क्रिया क्यों न करे वह कभी भी शुभ फल प्रदान नहीं कर भावना से की हुई भक्ति और पूजा से कभी भगवान प्रसन्न नहीं होता एक छोटा सा उदाहरण है अहंकार से दूषित चढ़ावा एक श्रीमंत व्यक्ति ने भगवान के मंदिर में एक हजार स्वर्ण मुद्राए ँ चढ़ाने का निश्चय किया । वह मुद्राओं की थैली लेकर मंदिर में गया और थैली को प्रतिमा के समक्ष जोर-जोर से बजाने लगा । मुद्राओं की ध्वनि से लोगों का ध्यान सेठजी की ओर चला गया । सेठ यही चाहते भी थे । जब उन्होंने देखा कि मंदिर में उपस्थित समस्त व्यक्ति उनकी ओर देख रहे हैं, तो उन्होंने थैली में से स्वर्ण मुद्राएँ निकालनी प्रारम्भ की और गिन गिनकर उन्हें भगवान से सामने चढ़ाने लगे । मुद्राएं चढ़ाते समय सेठजी गर्व से फूले नहीं समा रहे थे और विजित दृष्टि से चारों ओर देखते जा रहे थे । जब सेठजी का मुद्राएँ चढ़ाना समाप्त हो गया तो मंदिर का वृद्ध पुजारी जो कि अब तक एक ओर बैठा हुआ उनका कृत्य देख रहा था, उठकर गंभीरता पूर्वक बोला – 'सेठजी ! अपनी स्वर्ण मुद्राएँ वापिस ले जाइए ये भगवान को नहीं चढ़ सकतीं ।" पुजारी की बात सुनते ही सेठजी दुर्वासा ऋषि के समान क्रोध से भड़क कर बोले- 'क्यों नहीं चढ़ सकती ?" 'आपके अहंकार से ये मुद्राएँ दूषित हो गई हैं। दूषित वस्तु भगवान स्वीकार नहीं करते ।" पुजारी ने उसी गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया । सेठजी के अहंकार को मानों करारी चोट लगी और उन्हें होश आ गया । उस दिन के पश्चात् उन्होंने कभी इस प्रकार का गर्वपूर्ण दिखावा नहीं किया । कहने का अभिप्राय यही है कि गर्व से चढ़ाई हुई भेंट को भगवान भी स्वीकार नहीं करते और उससे जो शुभफल प्राप्त होना चाहिये वह कभी प्राप्त नहीं हो सकता । अतः गर्व से सदा बचना चाहिये और उसे अपनी नम्रता एवं विनय से जीतकर आत्मा को शुद्ध बनाना चाहिये । अब कषायों में तीसरे स्थान पर माया आती है । माया यानी कपट । कपटी व्यक्ति भी साधना के पथ पर नहीं बढ़ सकता। क्योंकि उसके हृदय में सदा ईर्ष्या, द्वेष एवं कटुता बनी रहती है । हमारे शास्त्र माया को शल्य मानते हैं । जिस प्रकार पैर में कांटा चुभ जाने पर व्यक्ति मार्ग में आगे बढ़ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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