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जीवन श्रेष्ठ कैसे बने ?
३२६ की प्रतिमा की स्थापना हो ही नहीं और अगर प्रतिमा हो तो उसकी कोई परवाह या चिन्ता की ही न जाय । चाहे प्रतिमा पर धूल की पर्त जमी हो, वह खंडित हो गई हो, या सर्वथा उपेक्षित अवस्था में पड़ी हो। ऐसा. होने पर उस मन्दिर की समस्त बाहरी शोभा या सजावट किस काम की ? किसी काम की नहीं।
इसीप्रकार केवल बाह्य जीवन को समृद्ध और भौतिक सुख से परिपूर्ण बनाने का प्रयास करना आत्मा-रूपी भगवान की प्रतिमा की उपेक्षा करना है। जो व्यक्ति आत्मा के यथार्थ रूप का ज्ञान नहीं करता, उसके शुद्ध और सहज स्वरूप की पहचान नहीं करता तो उसकी समस्त बाह्य क्रियाएँ और पुरुषार्थ व्यर्थ है।
इसलिए यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि हमारी आत्मा में अनन्तशक्ति है। केवल सांसारिक पदार्थों के प्रति आसक्ति और मोह की सुदृढ़ चादर से वह ढक गई है। इसी के परिणाम स्वरूप मनुष्य अपने मन और इन्द्रियों के वश में हो जाता है । वासना, कामना, और विषयासक्ति के फेर में पड़कर आत्मा के सम्यकज्ञान, दर्शन एवं चारित्र को भी उपेक्षा कर जाता है तथा इसके फलस्वरूप त्रिविध तापों से पीड़ित बना रहता है । अगर मानव मोहासक्ति की उस चादर को अपनी आत्मा पर से हटा सके तो फिर आत्मा की अनन्तशक्ति के समक्ष संसार का कोई भी प्रलोभन नहीं टिक सकता। ____ ध्यान में रखने की बात है कि आत्मा की शक्ति काम तो करती ही है, किन्तु उसके मोहावृत्त होने के कारण उसके कार्य मोह बढ़ाने वाले होते हैं और मोह अगर नष्ट हो जाय तो उसके कार्य आत्म-साधना में सहायक बन जाते हैं। इसलिए मनुष्य को विस्मृति से जागकर अपनी आत्मा की तथा उसकी अनन्त शक्ति की पहचान करना चाहिए और जीवन को उत्तम संस्कारों से विभूषित करके आत्मा-रूपी पावन प्रतिमा को कर्ममल रहित बनाने के प्रयत्न में जुड़ जाना चाहिए।
ऐसा करने पर ही आत्मा की अलौकिक ज्योति अपने शुद्ध रूप में प्रगट होगी और वह जन्म-मरण के दुखदायी चक्र से अपने आपको सदा सर्वदा के लिये मुक्त करके परमात्म-पद की प्राप्ति कर सकेगी।
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