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________________ ३२२ आनंन्द प्रवचन भाग-४ "प्रायश्चितम् चरिष्यामि, पूज्यानाम् को व्यतिक्रमः । " अगर मेरे द्वारा पूज्य व्यक्तियों की अवहेलना हुई है तो मैं उसका प्रायश्चित कर लूंगा । वह व्यक्ति यह अवश्य कह देता है किन्तु यह नहीं कहता कि अब मैं मान रखूंगा ही नहीं और कभी भी बड़ों की अवहेलना अथवा छोटों का तिरस्कार नहीं करूंगा । इस पर एक छोटा-सा उदाहरण है । मिच्छामि दुक्कडम् - एक गुरु और शिष्य विचरण करते हुए किसी छोटे से गाँव में पहुँचे । वहाँ पर स्थानक आदि न होने के कारण वे एक कुम्हार के घर पर ठहर गये । शिष्य आयु में कम और कुछ चंचल स्वभाव का था दूसरे शब्दों में बचपन उसका अभी गया नहीं था । उसने देखा कि घर का मालिक कुम्हार मिट्टी के घड़े चाक पर से उतारउतार कर जमीन पर रखता जा रहा है । शिष्य ने गीले घड़ों को देखा तो उसके हृदय में खेल करने की भावना जागृत हुई और वह एक-एक कंकड़ उठाकर क्रमशः गीले मटकों में मार-मार कर उनमें छेद करने लगा । किन्तु साधु होने के नाते उसके मन में यह विचार जरूर आया कि मैं यह ग़लती कर रहा हूँ और किसी गलती के होने पर साधु को “मिच्छामि दुक्कड़म् ।” कह कर प्रायश्चित कर लेना चाहिए । अतः वह प्रत्येक मटके में छेद करने के बाद “विच्छामि दुक्कड़म्' अवश्य कहता गया । शिष्य के यह कार्य प्रारम्भ करने के कुछ ही समय बाद कुम्हार की दृष्टि मटकों की ओर गई । विस्मय के साथ उसने देखा कि हर मटके में छेद हो रहा है । गीले होने के कारण कोई आवाज़ तो उसे आई नहीं थी । पर अब जब उसने मटकों की यह दशा देखी तो उनकी दुर्गति का कारण जानने के लिये आस-पास निगाह दौड़ाई और देखा कि उसके घर में ठहरे हुए मुनि का शिष्य दूर बैठा हुआ मटकों पर कंकर फेंक- फेंक कर उनमें छेद किये जा रहा है, तथा "मिच्छामि दुक्कड़म् ।" ये शब्द भी जबान से बोलता चला जा रहा है । कुम्हार बेचारा शिष्य के कार्य और कार्य करते हुए बोलने वाले शब्दों के रहस्य को समझा नहीं, अतः दौड़ा-दौड़ा गुरु जी के पास आया और उनसे सारी घटना कह सुनाई । वह शिष्य के कार्य पर चकित हो रहा था । गुरु जी ने शिष्य को बुलवाया और उससे सारी बात पूछी । शिष्य ने सहजभाव से कहा – “भगवन् ! आपने ही तो फ़रमाया था कि कोई गलती हो जाय तो "मिच्छामि दुक्कड़" कहकर उसके लिये प्रायश्चित कर लेना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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