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आनन्द-प्रवचन भाग-४
सम्राट की जूठन खाने वालो दासी भी अपनी चुटकी से वज्र सदृश हीरे को मसल डालती है। हमारे शास्त्र बताते हैं कि बाहूबलि ने अपने पूर्व जन्म में पांच सौ मुनियों की बड़ी भारी सेवा की थी। उसी सेवा के बल पर उन्हें अपार शक्ति हासिल हुई और वे भरत जैसे चक्रवर्ती सम्राट से मुकाबला करके उन्हें हरा भी सके थे।
तो बंधुओ ! सेवा का महत्त्व अवर्णनीय है। यद्यपि सेवा करने में नाना कष्ट उठाने पड़ते हैं, बड़ा त्याग करना पड़ता है तथा आत्म-भोग देना होता है किन्तु उसका परिणाम श्रेष्ठतम निकलता है। भगवती सूत्र में कहा भी है :
समाहि कारए णं तमेव समाहि पडिलम्भई । जो दूसरों के सुख एवं कल्याण का प्रयत्न करता है वह स्वयं भी सुख एवं कल्याण को प्राप्त होता है।
तो बंधुओं, इस दुर्लभ मानव-जीवन को पाकर जो व्यक्ति अपना समय सेवा में नहीं लगाता वह निश्चय ही अपने जीवन को निरर्थक करता है । सेवा करना मानव का परम धर्म है । इससे आत्मा सरल और शुद्ध होती है तथा पुण्य का संचय होता है । अगर हम इतिहास को उठाकर देखें तो पता चलेगा कि संसार के प्रत्येक महापुरुष के जीवन में पर-सेवा एक मुख्य कर्तव्य रहा है। अपनी इसी भावना से वे महान् बने और सदा के लिये अमर हो गए हैं।
सेवा के अनेक रूप होते हैं। परिवार के सदस्यों की सेवा, गुरु की सेवा, जाति-धर्म की सेवा या संघ की सेवा यह सब सेवा में आता है। अभी मैंने बताया था कि साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका की सेवा करने से तीर्थंकर गोत्रनाम-कर्म भी बंध सकता है। - इसलिये बंधुओ, आपको मैं बार-बार संगठन के लिए एवं संघ की सेवा के लिये कहता हूँ। संगठन में अपूर्व शक्ति है । और शक्तिशाली संघ प्रत्येक व्यक्ति के लिये गौरव एवं अभिमान की वस्तु है। अगर संघ का प्रत्येक सदस्य सेवा की भावना रखेगा तो वह फुलवारी में लगे हुए फूल के समान ही स्वयं भी सुशोभित होगा तथा संघ-रूपी फुलवारी की शोभा को बढ़ायेगा।
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