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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ अत्यन्त शांतिपूर्वक उसे कंधे पर लिये हुए चले जा रहे थे। पर इतने से ही उनकी परीक्षा सम्पूर्ण कैसे हो सकती थी ? मार्ग में नन्दीषेण जी के कंधे पर बैठे हुए ही मुनि रूपी देव ने मल-मूत्र का त्याग कर दिया। वह भी असह्य दुर्गंध के साथ । गन्दगी से नन्दीषेण जी के वस्त्र और शरीर सन गए तथा भयंकर दुर्गंध नाक में घुसने लगी। किन्तु धन्य थे वे नन्दीषेण मुनि, जिन्होंने उस स्थिति में भी उफ़ तक नहीं किया । जबान से ही नहीं, मन में भी उनके रंचमात्र भी ग्लानि या क्रोध का भाव नहीं आया। उनका हृदय अत्यन्त दुःख और करुणा से भर गया और वे विचार करने लगे-"किस प्रकार मैं शीघ्रातिशीघ्र मुनिराज का इलाज कराऊँ और उनका रोग तथा तकलीफ़ दूर हो सके।" गन्दगी से सने हुए नन्दीषण जी ने एक सुरक्षित और साफ़ जगह पर मुनि को कंधे पर से उतारा तथा समीप के गाँव से जल लाकर उनके और अपने वस्त्र एवं शरीर की शुद्धि की। नन्दीषेण जी की शारीरिक और मानसिक सेवा तथा उत्कृष्ट भावनाओं को अपने ज्ञान से देवता ने समझ लिया और अपने असली स्वरूप में आकर उन्हें धन्य-धन्य कहते हुए नमस्कार किया । यह सेवा का ही परिणाम था। सेवा करना सरल नहीं है बड़ा कठिन कार्य है। किन्तु जो इस कार्य को अपना लेता है वह इस लोक और परलोक दोनों में ही उसका उत्तम फल प्राप्त करता है। बाहूबलि के उदाहरण से भी इस बात की पुष्टि होती है। भरत और बाहुबलि दोनों भाई थे तथा भगवन ऋषभदेव के पुत्र थे। भरत जब छः खंड के चक्रवर्ती बने तो उन्होंने अपने भाई बाहुबलि को अपने अधीन रहने के लिये कहा। किन्तु बाहुबलि ने इस आज्ञा को नहीं माना और उत्तर दिया-"यह कैसे हो सकता है ? मुझ पर आपका क्या अधिकार है ? पिताजी ने मुझे भी राज्य का हिस्सा दिया है अतः आप अपने राज्य में शासन करिये और मैं अपने राज्य में करूंगा। पर जब दोनों ही अपनी अपनी बात पर अड़े रहे तो वाद-विवाद बढ़ गया और आवेश में आकार बाहुबलि ने कह दिया- “ऐसे भरत तो हमारे यहाँ चल्हे पर रोज चढ़ते हैं।" उन्होंने यह भी कहा कि खंडनी नहीं देना है तो मत दीजिये मगर मैत्री तो रखिये । किन्तु भरत चक्रवर्ती थे जिनकी सेवा में देवता रहते थे। वे कैसे छोटे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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