SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 328
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शुभ फलप्रदायिनी सेवा ३१३ उनके हृदय में करुणा व वात्सल्य की भावना होती है किन्तु पिता के लिये सुपुत्र जैसा होता है, वैसे ही भक्त अथवा सन्त भी भगवान के बताए हुए त्याग और तपस्या के मार्ग पर चलता है, उनके वचनों पर पूर्ण श्रद्धा और आस्था रखता है तथा गद्गद् हृदय से उनकी पूजा भक्ति और उपासना करता है अतः अपनी श्रेष्ठ व उत्तम भावनाओं का शुभफल प्राप्त करता हुआ भगवान के अधिक नज़दीक रहता है। श्रेष्ठ गुण या सद्गुण ही व्यक्ति की आत्मा को परमात्मा बनाते हैं अतः सद्गुणी व्यक्ति परमात्मा को सन्तुष्ट करता है । सारांश यही है कि परमात्मा को कोई भी प्राणी अप्रिय नहीं लगता किन्तु दुर्गुण अप्रिय लगते हैं और सद्गुण प्रिय । यही कारण है कि सन्त या भक्त सद्गुगी होने के कारण प्रभु की कृपा को प्राप्त कर लेते हैं । दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है : जे आयरिय-उवझायाणं, सुस्सूसा वयणं करे । तेसि सिक्खा पवड्ढति, जल सित्ता इव पायवा ॥ जो अपने आचार्य एवं उपाध्यायों की सुश्रुषा-सेवा तथा उनकी आज्ञाओं का पालन करता है उसकी विद्याएँ वैसे ही बढ़ती हैं, जैसे कि जल से सींचे जाने पर वृक्ष । तो बंधुओ, जैसा कि गाथा में कहा गया है-गुरु की आज्ञा पालन करने पर और उनकी सेवा करने पर शिष्य का ज्ञान वृद्धि प्राप्त करता है, उसी प्रकार भगवान की भक्ति करने वाले साधक, सन्त और भक्त का ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र भी अपने श्रेष्ठ रूप को प्राप्त करता जाता है और अपनी श्रेष्ठता के कारण वह भगवान का प्रिय बनता है । इससे स्पष्ट ही है कि श्रेष्ठ तथा सद्गुणी जब भगवान को प्रिय होता है तो उसकी सेवा करने पर वे प्रसन्न होते हैं। ___ इस प्रकार सेवा का बड़ा भारी महत्त्व माना गया है। सेवा मनुष्य की स्वाभाविक वत्ति है जो कि हृदय और आत्मा को पवित्र करती है तथा आत्मा की शक्ति को बढ़ाती है । इस विषय को स्पष्ट करने के लिये एक प्रासंगिक उदाहरण आपके समक्ष रखता हूँ। भगवती सूत्र में बताया गया है कि जिस प्रकार इस मानव-लोक में मनुष्य आपस में झगड़ पड़ते हैं उसी प्रकार देवलोकों में भी झगड़े हुआ करते हैं । देवलोक बारह हैं और जिस प्रकार हमारे यहाँ देश के राजा होते हैं, उसी प्रकार वहाँ इन्द्र हैं। पहले दो-दो देवलोकों के लिये एक-एक इन्द्र और बाकी आठ देवलोकों के लिये आठ इन्द्र, इस प्रकार कुल दस इन्द्र हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy