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________________ पूज्यपाद श्री त्रिलोकऋषिजी २६५ । व्यक्ति संयममार्ग को अपनाते हुए अपनी आत्मा को शुद्ध बनाए तथा निज-स्वरूप में ले आए। वह स्थिति आने पर ही आत्मा-परमात्मा कहलाने लगती है। मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि श्री त्रिलोकऋषि जी म० ने अनवरत साहित्य साधना की तथा अपनी वक्तृत्व-शक्ति से, लेखन-शक्ति से और कवित्व-शक्ति से, इस प्रकार सभी संभव तरीकों से अज्ञानी प्राणियों को बोध देने का प्रयत्न किया था। विरले व्यक्तियों में ही इसप्रकार की विभिन्न शक्तियाँ पूर्ण रूप से प्रस्फुटित होती हैं. जो कि अपने-अपने तरीके से जनता पर समान प्रभाव डालती हैं। आपके रचित सवैयों की तो मालवा, मेवाड़, मारवाड़, पंजाब, काठियावाड़ आदि अनेक प्रांतों में अभूतपूर्व प्रसिद्धि हई और जन-जन के मुंह पर वे रहे और आज भी रह रहे हैं। सारांश यही है कि आपका जीवन धर्मोपदेश, लेखन कार्य, कवित्व रचना एवं स्वाध्याय में ही व्यतीत हुआ। धर्मप्रसार आपने निरंतर भ्रमण करते हुए धर्म का प्रचार व प्रसार किया। वह समय सम्प्रदायों की कट्टरता के लिये बड़ा प्रसिद्ध था। किन्तु आप मालवा, मेवाड़, मारवाड़ जहाँ भी गए, सभी सम्प्रदाय के संतों से अभिन्नतापूर्वक मिले और उसी के अनुरूप व्यवहार करते रहे। परिणामस्वरूप जब आपका स्वर्गवास हुआ, सभी संप्रदाय के संतों ने एक स्वर से कहा- "आज हमारे धर्म का एक सूर्य अस्त हो गया।" अपने अंतिम चार वर्ष आपने दक्षिण में धर्म-प्रचार करने में बिताए थे। वहाँ भी आपके पधारने से पूर्व दो सम्प्रदायों का बड़ा जोर और मतभेद था, किन्तु आपकी कृपा से वहाँ जैनधर्म की जागृति हुई। तथा आपके स्मरणार्थ त्रिलोकऋषि छात्रावास तथा ज्ञानार्लय आदि का निर्माण हुआ। आपके पट्टधर शिष्य गुरुदेव श्री रत्नऋषि जी म० थे। उन्होंने भी जैनधर्म के प्रसार का बीड़ा उठाया था तथा अपना जीवन इसी सत्कार्य में लगा दिया था। इस प्रकार बहुत संक्षेप में मैं आपको पूज्यश्री त्रिलोकऋषि जी म० के विषय में बता सका हं क्योंकि उनकी सम्पूर्ण विशेषताएँ जबान से कहना संभव ही नहीं है। वे एक महापुरुष थे और जो महापुरुष होते हैं वे ज्ञान को अपने माहात्म्य से ग्रहण करके उसे जीवन में उतारते है तथा उसके प्रकाश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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