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सर्वस्य लोचनं शास्त्रम्
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परिचित कराके जीवन को सद्गुण सम्पन्न बनाते हैं, पापों का कुपरिणाम समझा कर उनसे बचाते हुए शुभकर्मों के लिये प्रेरित करते हैं तथा व्रत, नियम, त्याग, तपस्या आदि के महत्व को आचरण में उतारने का आदेश देकर इस लोक और परलोक दोनों को सँवारते हैं । अर्थात् वे आत्मा को उत्तरोत्तर निर्मल बनाए हुए इस लोक के पश्चात् भी सद्गति की ओर ले जाते हैं ।
पर यह होगा तभी, जबकि शास्त्रों का स्वाध्याय केवल तोतारटंत न हो । अनेक व्यक्ति प्रवचन सुनने के लिये स्थानक में जाकर बैठ जाने को ही अपने कर्तव्य की इति श्री मान लेते हैं, सोचते हैं कि हमने धर्म कर लिया या पुण्य कमा लिया । चाहे मन की चारों ओर उड़ानें जारी रहने पर वे धर्मोपदेश को समझ ही न पाए हों, उन्हें जीवनसात् करना तो दूर की बात है । और इसी प्रकार वे कुछ समय शास्त्रों का स्वाध्याय भी कर लेते हैं । पर वह केवल जबान से । शास्त्रों में क्या पढ़ा इसे न वे अन्तरात्मा से ग्रहण करते हैं और न ही उसे शरीर के द्वारा आचरण में उतारते हैं । ऐसे स्वाध्याय से कोई लाभ नहीं होता । वह उसी प्रकार निरर्थक चला जाता है जिस प्रकार चिकने घड़े पर डाला हुआ पानी ।
मनुस्मृति में कहा गया है
"पठनं मननविहीनं पचनविहीनेन तुल्यमशनेन ।”
अर्थात् चिंतन और मनन रहित वाचक ऐसा ही है, जैसा कि पाचन क्रिया से रहित खाया हुआ भोजन ।
वह भोजन जो पच नहीं पाता, शरीर को कोई लाभ नहीं पहुंचाता, इसी प्रकार जो स्वाध्याय मन को शुद्ध नहीं करता और आचरण में नहीं उतरता वह भी व्यर्थ ही चला जाता है । अतः हमें शास्त्रों का पठन करके उसे जीवन में उतारना है तथा जीवन को हारना नहीं, जीतना है ।
जीत कैसी हो ?
इस संसार में 'जीत' शब्द सभी को प्रिय लगता है । कोई भी व्यक्ति हार शब्द को पसंद नहीं करता । पर हार और जीत शब्दों को किन अर्थों में लेना चाहिये, समझना इसी बात को है ।
क्या व्यक्ति को अपने समकक्ष व्यापारी से अधिक धन कमाकर उसे नीचा दिखाने में जीत है ? क्या अपने से झगड़ पड़ने वाले व्यक्ति को अपने शारीरिक बल से परास्त कर देने में जीत है ? क्या दुनिया भर की पोथियों को पढ़कर आत्म-ज्ञान से शून्य रहते हुए भी लोगों पर कुतर्कों के द्वारा अपनी विद्वत्ता जमा देने में ही जीत है ? नहीं ।
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