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ज्ञान की पहचान
धर्मप्रेमी बंधुओ, माताओ एवं बहनो !
कल के प्रवचन में बताया गया था कि ज्ञान और दर्शन, ये इस लोक में भी काम आते हैं और परलोक में भी काम आते हैं। किन्तु इस लोक में काम कैसे आते हैं और परलोक में कैसे आते हैं, इस विषय को जानने की जिज्ञासा जिज्ञासु व्यक्तियों के मन में होती है। सभी व्यक्ति 'बाबा वाक्यम् प्रमाणम्' को माननेवाले नहीं होते । विचारवान और चिंतनशील व्यक्ति प्रत्येक अक्षर और प्रत्येक शब्द को सुनकर उस पर विचार करते हैं और उनका सही ज्ञान करना चाहते हैं।
व्याकरणशास्त्र के अनुसार ज्ञान शब्द की व्याख्या की है—'ज्ञायते अनेन इति ज्ञानम् ।' जिससे जाना जाय वह ज्ञान-यहाँ तृतीया विभक्ति है। वैसे पंचमी विभक्ति का प्रयोग भी किया जाता है-'ज्ञायते अस्मात् तद् ज्ञानम् ।' थोड़ा-सा अन्तर बताया गया जिसमें से मालूम होता है वह ज्ञान । ___मेरे कहने का आशय यह है कि जिससे जाना जाय-मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? मेरा कर्तव्य क्या ? मैं कर क्या रहा हूँ ? इन सब बातों को समझा सकनेवाला ज्ञान कहलाता है।
यद्यपि ज्ञान भी अनेक प्रकार का है। आज संसार में अनेक प्रकार के व्यवसाय-धन्धे करने वाले लोग हैं। कोई सुनार है, कोई लुहार है, कोई बढ़ई, कोई दरजी, या नाई, धोबी कुछ भी है सभी के कार्य अलग हैं और सब अपने-अपने कार्य का ज्ञान करते हैं तथा अपने व्यवसाय में पारंगत हो जाते हैं। वैसी स्थिति में सुनार लोहारी धंधे में लग जाय और लुहार आभूषण गढ़ने बैठे तो क्या वे सफलतापूर्वक कार्य कर सकते हैं ? नहीं। वे अपना ही कार्य सफलतापूर्वक कर सकते हैं, जिसका उन्होंने ज्ञान किया है।
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