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________________ उत्तम पुरुष के लक्षण २१५ इसके अलावा उसके शुद्ध एवं निष्कपट हृदय में धर्म स्थिर रहता है । सच्चे व्यक्ति को कोई भी संकट डिगा नहीं सकता और अंत में वह खरा साबित हो जाता है इसीप्रकार धर्म में भी पोल नहीं चलती पर वह कठिन परीक्षाओं में से गुजर कर अपनी उज्ज्वलता का सिक्का लोगों के हृदयों पर जमा लेता है । तो बन्धुओं, जहाँ सचाई है, वहीं धर्म का निवास है । अनेक व्यक्ति जिन्हें हम अनार्य या म्लेच्छ कहते हैं अपनी सत्यवादिता के कारण हमसे उच्च सांबित होते हैं | वे चालीस गज का थान ग्राहकों को देते हैं, उसमें से एक अंगुल भी कपड़ा कम नहीं होता पर आप पाँच गज कपड़ा किसी को देते हैं तो उसमें भी एक या दो अंगुल कम नहीं हुआ तो आपने व्यापार ही क्या किया । यह देखते हुए मुझे कहना पड़ेगा कि वे लोग अनार्य कहलाते हुए भी आर्यों के उपयुक्त कार्य करते हैं और आप आर्य होते हुए भी अनार्यों के समान व्यवहार रखते हैं । पर आप अच्छे कुल, गोत्र और क्षेत्र में जन्म लेने से ही आध्यात्मिक जगत में आर्य नहीं कहला सकते और वे लोग निम्न जाति, कुल एवं क्षेत्र में जन्म लेने पर भी आर्यों से कम नहीं माने जा सकते, कारण केवल यही है कि उनके हृदय में सत्य है और सत्य में धर्म का स्थान होता है । दूसरा प्रश्न है – कथं धर्मो विवर्धते ? यानी धर्म को जिस प्रकार शिशु के जन्म लेने के पश्चात् उसके पोषण के पड़ती है उसी प्रकार धर्म के जन्म लेने के पश्चात् भी उसकी खुराक जुटानी पड़ती है और वह खुराक है - दया एवं दान । दया एवं दान से धर्म की वृद्धि होती है । जिस व्यक्ति के हृदय में दया या करुणा की भावना होती है वह संसार के समस्त प्राणियों को आत्मवत् मानता है । पर जिसके हृदय में यह भावना जागृत नहीं होती और देशवासियों को भाई मानना तो दूर अपने सगे भाई को भी भाई न मानकर दुश्मन मानता है तथा मेरा और तेरा करता हुआ कलह में वहाँ धर्म की वृद्धि कैसे हो सकती है ? जीवन गुजार देता है, . हम मानव । भाग्य ने हमें बुद्धि दी है और ज्ञान-प्राप्ति के शुभ संयोग भी जुटाये हैं तो हमें उनसे लाभ अवश्य उठाना चाहिये । अगर हम में शक्ति है, हम सम्पन्न हैं तो गरीबों पर दया करना तथा अभावग्रस्त प्राणियों के अभावों को दूर करना हमारा कर्तव्य है । इसके अलावा दान करके हम औरों पर एहसान नहीं करते क्योंकि जितना हम दूसरों को देते हैं उससे कई गुना अधिक पुण्य फल के रूप मे हमें पुनः प्राप्त हो जाता है । Jain Education International वृद्धि कैसे होती है ? लिये खुराक देनी पुष्टि के लिये For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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