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________________ २०६ शास्त्र सर्वत्रगं चक्षः स्कंदक ऋषि के शरीर की चमड़ी उतार ली गई पर वे पूर्णतया शांति से कष्ट को सहन करते रहे और मुनि गजसुकुमाल ने सिर पर धधकते अंगारे रख दिये तब भी वे पूर्ववत शांत रहे । क्या उनके शरीर को उस समय संताप नहीं हुआ होगा ? अवश्य ही हुआ होगा किन्तु समभाव रखने की उनमें बड़ी भारी शक्ति थी जो संतों में पाई जाती है। बहुत समय पहले की बात है कि किसी शहर में एक संत सेवाराम रहते थे। उनकी ख्याति से जलकर एक दुष्ट व्यक्ति ने उसे चोरी के झूठे इलजाम में पकड़वा दिया । राज्य के कर्मचारियों ने उन्हें चोरी के अपराध को कबूल करने का आदेश दिया किन्तु झूठे अपराध को वे कैसे कबूल करते ? उन्होंने स्पष्ट इनकार कर दिया। __इस पर पुलिस आफीसर ने उन्हें कोड़े से पीटने की आज्ञा दी और उनके शरीर पर कोड़े बरसने लगे । किन्तु वृद्ध महात्मा पूर्ववत शांति से और अपनी मधुर मुस्कान के साथ कोड़ों की मार सहते रहे । अंत में तंग आकर राज्याधिकारियों ने उन्हें छोड़ दिया। . ___संत का शरीर लहूलुहान हो रहा था और यह देखकर कई व्यक्ति उनके पास दौड़े आए और उनका उपचार करने लगे। उन्होंने आश्चर्य से देखा कि महात्माजी के चेहरे पर दुःख या संताप के कारण एक शिकन भी नहीं पड़ी है और वह प्रसन्नता से खिला हुआ है। एक व्यक्ति से नहीं रहा गया अतः उसने कहा- "भगवन् ! आप इतने वृद्ध और दुर्बल हैं फिर भी इतनी कड़ी मार को कैसे सहन करते रहे ?" महात्माजी ने उत्तर दिया- "भाई; संताप को शांति से सहन किया जाता है । मेरे मन में असीम शाँति है अतः मुझे तनिक भी दुःख महसूस नहीं हुआ।" तात्पर्य यही है कि संत जीवन से ही व्यक्ति को समभाव की शिक्षा मिलती है और उनके सदुपदेशों से शास्त्रों में रहा हुआ गूढ-ज्ञान हासिल होता है। जो व्यक्ति शास्त्र-श्रवण एवं उसका अध्ययन करने में रुचि रखते हैं उन्हें दोहरा लाभ प्राप्त होता है । आप सोचेंगे ऐसा क्यों? उत्तर में कहा जा सकता है कि शास्त्र के पठन-पाठन में रुचि रखने से प्रथम तो व्यक्ति सम्यक ज्ञान की प्राप्ति करता है, जीवन और जगत के रहस्य को जान लेता है। दूसरे उसका वह समय सुन्दर ढंग से व्यतीत होता है । संस्कृत के एक श्लोक में कहा भी गया है- . १४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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