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आनन्द-प्रवचन भाग-४ कि वह समय पड़ने पर अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए भी किसी की बड़ी से बड़ी हानि करने से नहीं चूकता, किन्तु सबसे विशुद्ध और शुक्ल-लेश्या रखने वाला व्यक्ति किसी भी प्राणो को रंचमात्र भी कष्ट दिये बिना अपना जीवनयापन करता चला जाता है। परिणाम स्वरूप कृष्ण-लेश्या वाला व्यक्ति नरकों की यातनाएँ भोगता है और शुक्ल-लेश्या रखने वाला व्यक्ति स्वर्गीय सुखों का उपभोग करता है।
हम प्रायः देखते हैं कि व्यक्ति निरर्थक ही अपनी भावनाओं को अशुद्ध और कलुषित बना लेते हैं। जबकि उन भावनाओं के होने से उनका कोई लाभ नहीं होता और न होने से कोई हानि नहीं होती। उदाहरणस्वरूप कोई उदार श्रीमान् खुले हाथों से दान देता है तथा द्वार पर आए हुए प्रत्येक याचक को संतुष्ट करके भेजता है किन्तु उसका मुनीम सेठ को धन देते हुए देखकर कुढ़ता है और जलता रहता है। मौका मिलने पर लेने वालों को तिरस्कृत करने से भी नहीं चूकता।
गंभीरता पूर्वक सोचने की बात है कि सेठ जो धन दूसरों को देता है, उससे मुनीम को कौन सा घाटा जाता है और अगर न दे तो उसे क्या लाभ हासिल होता है ? कुछ भी नहीं, फिर भी वह दान देते हुए मालिक को देखकर अपनी भावनाओं को विकृत बनाकर अपने अन्तराय कर्मों का बंधन कर लेता है। इसीप्रकार व्यक्ति औरों का बुरा सोचता रहता है, पर उसके सोचने से क्या दूसरों का बुरा हो जाता है ? उसका अहित या बुरा होना न होना तो उनके भाग्य पर निर्भर होता है किन्तु बुरा सोचनेवाले व्यक्ति की बुरी भावनाओं से स्वयं उसका बुरा तो हो ही जाता है। इससे स्पष्ट है कि मनुष्य को अपनी भावनाओं को सदा सात्विक और पवित्र रखना चाहिए। निरर्थक बुरे विचार व्यक्ति के जीवन के लिए घातक होते हैं।
इसीलिए शास्त्र में हमें अपनी भावनाओं को शुद्ध रखने का, समभाव में रमण करने का तथा अनासक्त भाव बनाए रखने का आदेश देते हैं । अगर व्यक्ति इनका महत्त्व समझ लेता है तो वह चाहे गरीबी में जीवन गुजारे या वैभव में लोट-पोट होता रहे, अपनी आत्मा को निश्चय ही विशुद्ध बना लेता है । भगवान् ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्ती के विषय में आपने अनेक बार सुना और पढ़ा भी होगा कि असीम ऋद्धि के स्वामी होते हुए भी उन्हें अपनी भावनाओं के बल पर केवलज्ञान की उपलब्धि हो गई थी। उनके विषय में एक श्लोक कहा गया है
षट्खण्डराज्ये भरतो निमग्न
स्ताम्बूलवक्त्रः सविभूषणश्च ।
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