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________________ कहां निकल जाऊ या इलाही ! .१६७ वही प्रमाण है । अनुमान या आगम कोई विश्वस्त प्रमाण नहीं है । परलोक में जाने वाली भी कोई आत्मा नहीं है । ऐसी विचारधारा रखने वाले व्यक्ति सांसारिक विषय-भोगों में ही सुख मानते । तथा उन्हें जीवन में अधिक से अधिक भोग लिया जाय ऐसा प्रयत्न करते हैं । उनका जीवन-सूत्र ही यह होता है यावज्जीवेत्सुखं जीवेद् ऋणं भस्मीभूतस्य देहस्य, कृत्वा घृतं पुनरागमनं Jain Education International क्या शानदार बात कहते हैं वे ? मनुष्य जब तक जीवित रहे खूब सुख से रहे तथा पास में पैसा न हो तो ऋण लेकर घी पिया करे । क्योंकि जब यह देह भस्म हो जायेगी तो फिर किस प्रकार सुखों का उपभोग करेंगे ? पुन:पुनः जन्म-मरण या परलोक तो कुछ है नहीं, भस्म होने के बाद पुनः आना कैसा ? अतः जिस प्रकार बने और जितना भी बने सुख भोगना ही बुद्धिमानी है । तथा इसी में इस शरीर का कल्याण है । उसके अलावा आत्मा और उसका कल्याण क्या ? न तो किसी ने आत्मा को देखा है और न परमात्मा ही दृष्टिगोचर हुआ है । परलोक जाकर भी कभी कोई वापिस नहीं आया जिसने वहाँ के बारे में कुछ बताया हो । और इधर संसार तथा सांस्सारिक सुख तो प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं । फिर इन प्राप्त सुखों को छोड़कर कल्पित सुखों के लिये प्रयत्न करना कहाँ की बुद्धिमानी है ? पर बन्धुओ ! हमें बड़ी गंभीरता और दूरदर्शिता से इस बात पर विचार करना चाहिये । परलोक को देख न पाने मात्र से ही उस पर सन्देह और अविश्वास करना बुद्धिमानी नहीं है । व्यक्ति अपने पिता, दादा या कभी-कभी परदादा को भी देख लेता है । किन्तु अपनी पाँचवीं, छठीं सातवीं और उससे पहले की पीढ़ियों में हुए पूर्वजों को तो कभी नहीं देख पाता, पर वह उनके होने से इन्कार नहीं कर सकता है । क्या वह यह कह सकता है कि मैंने उन्हें देखा नहीं । नहीं, ऐसा वह नही कह सकता क्योंकि अगर वे नहीं हुए होते तो वह स्वयं कैसे जन्म लेता ? मात्र से ही सहारे तो इस इससे स्पष्ट हो जाता है कि न देख सकने अस्तित्व को मिटाया नहीं जा सकता । भविष्य के सभी व्यापार होते ही हैं । किसान भविष्य में फसल प्राप्त करने की खेतों में बीज बोता है, व्यापारी भविष्य में अर्थ लाभ की आशा से व्यापार में पूँजी लगाता है और मानव वृद्धावस्था में सुख पाने की आशा से पुत्र का लालन-पालन करता है । अगर ये सब भविष्य की आशा न रखकर अपने कार्य छोड़ दें तो फिर संसार की स्थिति क्या हो जायेगी ? पिबेत् । कुत: ? For Personal & Private Use Only किसी वस्तु के संसार में आशा से www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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