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मन के मते ना चालिये
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मन दुर्गुणों की मलिनता से भरा हुआ है उसे बगुले के समान समझना चाहिये ।
ऐसे शरीर के होने से जीव को कुछ भी लाभ नहीं होता जिस प्रकार काठ का घोड़ा सवारी का लाभ नहीं देता और फूटा हुआ ढोल अपनी मधुर ध्वनि से शुभ समारोहों को पूर्ण सफल नहीं बना सकता । इसी भजन में आगे कहा है
समझ समझ कर बोल अज्ञानी, समझ समझ कर बोल 1
अज्ञानी मनुष्य को संबोधित करते हुए सीख दी है कि भाई ! तू अपनी बुद्धि का प्रयोग करता हुआ बहुत सावधानी से बोल, अन्यथा वह उसी प्रकार व्यर्थ चला जाएगा, जिस प्रकार फूटे हुए ढोल का कर्णकटु शब्द निरर्थक जाता है ।
वाणी वाणी में अन्तर
एक सेठ जी थे उनकी पत्नी का स्वर्गवास हो गया तो उन्होंने दूसरा विवाह किया । दूसरी पत्नी निर्धन घर की थी और उसके एक भाई के अलावा कोई भी नहीं था ।
जब उनकी पत्नी ने अपनी ससुराल को सम्पन्न देखा तो अपने पति, सेठ जी से बोली—“आपके यहाँ धन की कमी नहीं हैं और इतने आदमी पल रहे हैं तो मेरे भाई को भी अपनी दुकान में किसी काम पर लगा लीजिये । "
सेठजी ने उत्तर दिया- " सेठानी ! तुम कहो तो हम तुम्हारे भाई को हजार-दो हजार रुपया साल अथवा और भी किसी प्रकार की सहायता करने के लिये तैयार हैं । किन्तु उसमें दुकान पर रहने लायक योग्यता नहीं है, दुकान का काम तो कोई होशियार व्यक्ति ही कर सकता है ।"
इस बात पर सेठानी बहुत नाराज हुई और यह देखकर सेठ जी ने अपने साले को दुकान पर काम करने के लिये रख लिया ।
कुछ समय बाद सेठ और सेठानी तीर्थ यात्रा के लिये गये और जब लौट कर आए तो उन्होंने अपने साले को वहाँ के राजा के पास राजदरबार में भेजा । साथ में बहुत सी सौगात थी जो कि राजा को भेंट करने के लिये थी । जब राजा ने सुना कि अमुक श्रेष्ठि तीर्थ यात्रा से लौटे हैं तो उन्होंने सहजभाव से पूछ लिया- " कहो भाई ! सेठजी हमारे लिये क्या लाए हैं ?"
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