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________________ १४८ आनन्द-प्रवचन भाग-४ ध्यान में रखने की बात है कि भगवान अपनी सेवा-पूजा से प्रसन्न नहीं होते अपितु वे दीन, दरिद्र एवं दुखियों की सेवा करने से प्रसन्न होते हैं । और यह वही कर सकता है जिसके हृदय में अहिंसा, सत्य, संयम, स्नेह, शील, तथा सदाचार के समस्त गुण हो । ... अब समस्या यह सामने आती है ये सब गुण आत्मा में पनप कैसे ? वे तभी पनप सकते हैं या जागृत हो सकते हैं जबकि व्यक्ति सद्गुणियों की संगति में रहे, सद्गुरु के उपदेश सुने तथा शास्त्रों का स्वाध्याय एवं श्रवण करें। पर गुरु के उपदेश और शास्त्रों का श्रवण केवल कानों तक ही न रखे अन्यथा वह तोता-रटंत हो जाएगा। यानी सुनना है अतः सुन लिया, किन्तु उस पर चिन्तन मनन नहीं किया और उसे आचरण में भी नहीं उतारा तो सुनने का कोई लाभ नहीं है । श्रोताओं का सबसे बड़ा कर्तव्य ही यह है कि वह जो कुछ सुने उसे आत्मा की गहराई तक पहुँचाए तथा अपनी बुद्धि की कसौटी पर कसते हुए व्यवहार में ही लाए। आप अपने अमूल्य समय का लाभ लेने के लिये अनेक काम-काज छोड़कर यहाँ आते हैं और शास्त्रों की वाणी सुनते हैं । किन्तु यहाँ से जाकर अगर उस पर चिन्तन न करें तो फिर वह आपके आचरण में कैसे उतर सकती है ? उसके लिये आपको गाय के समान जुगाली करनी चाहिये । हम प्रायः देखते हैं कि गाय जंगल में चरती है या घर पर भी घास खाती है किन्तु अपनी भूख को मिटाने जितना खा लेने के पश्चात् वह घास से मुह हटाकर एक ओर शांति से बैठ जाती है और फिर जुगाली करती रहती है। उस जुगाली को मराठी भाषा में बाघुल भी कहते हैं । जब तक वह बाघुल नहीं करती यानी खाये हुए का अच्छी तरह से चर्वण नहीं करती, तब तक उसका खाया हुआ घास पचता नहीं है और उस स्थिति में वह उसके शरीर को लाभ नहीं पहुंचाता। इसी प्रकार आप उपदेश सुनते हैं, शास्त्र श्रवण करते हैं किन्तु उसके पश्चात् अगर एकान्त में बैठकर उस पर मनन नहीं करते तो आपका सुना हुआ विषय आपको लाभ नहीं पहुंचाता और आपकी आत्मा तक नहीं पहुंच पाता आगे जब वह आत्मा को भी नहीं छूता तो फिर आचरण में उतर भी कैसे सकता है ? आद्य शंकराचार्य ने कहा है-- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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