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आनन्द-प्रवचन भाग-४
वस्तुतः यही कहा जाता है कि जब तक सर्प के शरीर पर केंचुली रहती है, वह अंधा रहता है । अतः ज्योंही वह उसके शरीर पर से अलग हो जाती है अंधेपन से मुक्त होकर वह सरपट भागता है । पीछे मुड़कर भीन ही देखता भय के कारण । इसी प्रकार भक्त पापों का ऐसे त्याग कर देता है कि पुनः उनको करने का स्वप्न में भी विचार नहीं करता । सर्प जैसे केंचुली से डरता है, उसीप्रकार भक्त या साधक पापों से डरता है। उनके भयभीत रहने के कारण ही वह संसार से अलिप्त रहता है तथा अनासक्तभाव से केवल ईशभक्ति में लगा रहता है । यद्यपि संसार में रहते हुए समस्त सांसारिक पदार्थों से और सांसारिक नातों से विमुख रहना बड़ा कठिन कार्य है किन्तु जब वह संसार की अनित्यता को समझ लेता है तो उसमें गृद्ध रहकर अपने अमूल्य जीवन को क्षणिक सुखों के पीछे नष्ट करने की मूर्खता नहीं करता। यही सत्य भी है जिसके विषय में महात्मा कबीर ने कहा है: -
जब लग नाता जगत का, तब लग भक्ति न होय । नाता तोड़े हरि भजे, भक्त कहावे सोय ॥ कामी क्रोधी लालची, इनतें भक्ति न होय ।
भक्ति करे कोई सूरमा. जाति वरन कुल खोय ॥ कहते हैं -जब तक संसार से नाता नहीं टूट जाता, तब तक प्रभु की भक्ति नहीं हो सकती और जो भव्य प्राणी ऐसा करके परमात्मा का भजन करते हैं वे ही भक्ति कर सकते हैं तथा भक्त कहलाते हैं।।
कोई व्यक्ति यह चाहे कि मैं संसार के समस्त सुखों का उपभोग भी करता रहूँ तथा ईश्वर को भी प्रसन्न कर लूँ तो यह कदापि संभव नहीं है । उसे दो में से एक को चुनना पड़ेगा । कबीर ने आगे कहा भी है-काम-भोगों में रत रहने वाला, क्रोध करनेवाला और लालच करनेवाला व्यक्ति कभी भगवान की भक्ति नहीं कर सकता । भक्ति का मार्ग तो इनसे उलटा है। ___ संस्कृत के एक श्लोक में बताया गया है कि भगवान पूजा में कौन से पुष्प चाहते हैं ? यानी किस प्रकार उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है । श्लोक इस प्रकार है
अहिंसा प्रथमं पुष्पं, द्वितीयं करणग्रहः । तृतीयकं भूतदया, चतुर्थ शान्तिरेव च ॥ शमस्तु पञ्चमं पुष्पं,ध्यानं चेव तु सप्तमम् । सत्यं चैवाष्टमं पुष्प एतै स्तुष्यति केशवः ॥
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