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________________ पाप-नाशक तप ११६ को शुद्ध व उचित बना सकता है। जो विवेकी पुरुष तपाचरण करते हैं वे निर्भय होकर परलोक गमन कर सकते हैं, उन्हें अपने भविष्य के लिए तनिक भी चिंतित होने की आवश्यकता नहीं रहती। हमारा जैनधर्म भी एक माह में बारह व्रत यानी उपवास करने को कहता है । वे दिन है-दूज, पंचमी, अष्टमी, एकादशी, चतुर्दशी और पक्खी शारीरिक शक्ति हो तो व्यक्ति इन सभी दिनों में उपवास करे नहीं तो अष्टमी और चतुर्दशी करे और ये भी नहीं कर पाए तो केवल चतुर्दशी को ही ब्रह्मचर्य व्रत करे । पर आप तो इन सभीको गोल कर जाते हैं। महीने में एक तो क्या एक वर्ष में एक संवत्सरी के दिन भी उपवास करना नहीं चाहते । आपने भी एक कहावत बना रखी है "सबको मौत आती है पर संवत्सरी को नहीं आती।" आप लोग वैष्णवों से कम थोड़े ही हैं। वणिक हैं, और वणिक-बुद्धि का लोहा तो सारे संसार ने माना है। आप चाहें तो बिना एक अक्षर पढ़े भी बड़े से बड़े विद्वान् को चुटकियों में परास्त कर दें। तो कहने का अर्थ यही है कि आप तप करना नहीं चाहते और इसलिए अपनी वाक्य-चातुरी से तथा बहानेबाजी से संतों को भी चक्कर में डाल देते हैं । एक संस्कृत का श्लोक है यस्य ग्लानिभयेन नोपशमनम, नायम्बिलम् सेवितम् । नो सामायिकमात्मशुद्धि जनकम, नैकासनम शुद्धितः ।। स्वादिष्टाशनपानयान विभवनक्तं दिवं पोषितम् । हा नष्टं तदपि क्षणेन जरया, मृत्या शरीरं रुजा ।।। कहते हैं—जिसने ग्लानि के भय से कभी उपवास नहीं किया, आयम्बिल नहीं किया, आत्म-शुद्धि के लिए सामायिक नहीं की तथा एकासन भी नहीं कर सका, केवल स्वादिष्ट भोजन-पान के द्वारा शरीर को पुष्ट किया और भोगोपभोगों से इन्द्रियों को तृप्त किया। हाय ! उसका शरीर भी तो वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु के द्वारा नष्ट होगा। श्लोक कितना मर्मस्पर्शी है ? यद्यपि हमारा धर्म त्याग और तपस्या पर बल देता है तथा उपवास, आयम्बिल, एकासन तथा सामायिक आदि करके आत्मशुद्धि करने की प्रेरणा देता है। किन्तु व्यक्ति अपने सुन्दर पुष्ट एवं शक्तिशाली शरीर को तनिक भी कष्ट न देने के कारण यह सब नहीं करता । वह कहता है-'उपवास करने से मेरा शरीर कृश होगा, चक्कर आएँगे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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