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________________ वर्णी-वाणी ३१८ अहिंसा--पृ० १७६, वा० ३, जीवन में आये हुए विकारों को दूर करना। सम्प्रदायवादी-पृ० १८०, वा० ४, विवक्षित तत्त्वज्ञान के बहाने कल्पित की गई रेखाओं को धर्म बतलानेवाले । __ तत्त्वदृष्टि-पृ० १८०, वा० ४, वास्तव दृष्टि । सुधासीकर-- . निवृत्तिमार्ग-पृ० १६७, वा० २०, जीवन में आये हुए विकारों के त्याग का मार्ग। शुद्धोपयोग-पृ० २००,वा० ४२ रागद्वेष रूप प्रवृत्ति से रहित होकर जड़ चेतन प्रत्येक पदार्थ को मात्र जानना शुद्धोपयोग है। ब्रह्मचर्य-पृ० २०१, वा० ४८, स्त्री मात्र से दृषित चित्तवृत्ति को हटाकर उसे आत्मस्वरूप के चिन्तन में लगाना ब्रह्मचर्य है । क्षमा-पृ० २०३, वा० ६७, क्रोध का त्याग या अवैरभाव । मनोनिग्रह-पृ० २०४, वा० ७६, विषयों से हटाकर मनको अपने आधीन कर लेना। दैनंदिनी के पृष्ठ-- निरीहवृत्ति-पृ० २१५, वा० ६५, सांसारिक अभिलाषाओं के त्याग रूप परिणति । पर्याय-पृ० २१६, वा०६५, द्रव्य की अवस्था । कर्म फल चेतना-पू० २२, वा० ६६, ज्ञान के सिवा अन्य अनात्मीय कार्यो का अपने को भोक्ता अनुभव करना और तद्र प हो जाना कर्मफल चेतना है। कमचेतना-पृ०२२१, वा०६५, ज्ञान के सिवा अपने को अन्य अनात्मीय कार्यो का कर्ता अनुभव करना कर्मचेतना है। संसार-- अमूर्त-पृ० २२५, पंक्ति ५, रूप, रस, गन्ध आदि पुद्गलधों से रहित । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003997
Book TitleVarni Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1950
Total Pages380
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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