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गागर में सागर
इस भव वन के मध्य में जिन विन जाने जीव । भ्रमण यातना सहनकर पाते दुःख सर्वहितङ्कर ज्ञानमय कर्मचक्र से आत्म लाभ के हेतु तस चरण नमूं हत
आत्मज्ञान
कब वे वह शुभग दिन जा पर पदार्थ को भिन्न लख होवे
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तीव ॥ १ ॥
दूर | क्रूर ॥ २ ॥
दिन होवे सूझ |
अपनी बूझ || ३ ॥
हिये विचार ।
जो कुछ है तो आप में देखो दर्पण परछाही लखत श्वानहिं दुःख अपार ॥ ४ तम आतम रटन से नहिं पावहि भव पार । भोजन की कथनी किये मिटे भूख क्या यार ।। ५ ।। यह भवसागर अगम है नाहीं इसका पार । आप सम्हाले सहज ही नैया होगी पार ॥ ६
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