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समयसार
पुद्गल के गुण हैं।
अध:कर्म और उद्देश्य से बनाया गया जो आहार है वह पुद्गलद्रव्यमय है वह मेरा कराया हुआ कैसे हो सकता है क्योंकि वह तो नित्य अचेतन कहा गया है। (३१६ और ३१७वीं गाथा के बीच)
जो पुण णिरावराहो चेदा णिस्संकिदो दु सो होदि।
आराहणाए णिच्चं वट्टदि अहमिदि वियाणंतो।। अर्थ-जो अज्ञानी जीव सापराध है वह तो सशङ्कित होता हुआ कर्मफल को तन्मय होकर भोगता है। परन्तु जो निरपराध ज्ञानी पुरुष है वह कर्मोदय होने पर क्या करता है, यह इस गाथा में बताते हुए कहा है कि
जो ज्ञानी पुरुष निरपराध है वह नि:शङ्कित रहता है और 'मैं ज्ञान-दर्शनस्वरूप आत्मा हूँ', ऐसा जानता हुआ निरन्तर उसकी आराधना में तत्पर रहता है। (३३१ और ३३२वीं गाथा के बीच)
सम्मत्ता जदि पयडी सम्मादिट्ठी करेदि अप्पाणं।
तम्हा अचेदणा दे पयडी णणु कारगो पत्तो।। अर्थ-यदि सम्यक्त्वप्रकृति आत्मा को सम्यग्दृष्टि करती है, ऐसा माना जाय, तो तेरे मत में अचेतन प्रकृति सम्यक्त्व को करनेवाली हुई।
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