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परिशिष्ट
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(१९वीं और २०वीं गाथा के बीच)
जीवे व अजीवे वा संपदि समयम्हि जत्थ उवजुत्तो। तत्थेव बंधमोक्खो हवदि समासेण णिहिट्ठो।।
अर्थ- आत्मा वर्तमान समय में जिस जीव अथवा अजीव में उपयुक्त होता है- तन्मयीभाव से उन्हें उपादेय मानता है उसी में बन्ध और मोक्ष होता है, ऐसा संक्षेप में कहा गया है।
__ भावार्थ- जब शरीरादिक अजीव पदार्थ में तन्मय होकर उन्हें ही उपादेय मानता है, तब बन्ध होता है और जब जीव-शुद्ध आत्मस्वरूप में तन्मय होकर उसे ही. उपादेय मानता है तब मोक्ष होता है।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स। णिच्छयदो ववहारा पोग्गलकम्माण कत्तारं ।।
अर्थ- आत्मा निश्चयनय से जिस भाव को करता है वह उसी भाव का कर्ता होता है और व्यवहार से पुद्गलकर्मों का कर्ता है।
भावार्थ- शुद्ध निश्चयनय से आत्मा अपने ज्ञानादिभावों का कर्ता है, अशुद्धनिश्चयनय से रागादिक अशुद्धभावों का कर्ता है और अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से पुद्गलरूप द्रव्यकर्मादिक का कर्ता है। (७५ और ७६वीं गाथा के बीच)
कत्ता आदा भणिदो ण य कत्ता केण सो उवाएण। धम्मादि परिणामे जो जाणदि सो हवदि णाणी।।
अर्थ- आत्मा कर्ता कहा गया है और कर्ता नहीं कहा गया है सो किस उपाय से? इसे जो जानता है तथा धर्म-अधर्म रूप परिणामों को जो जानता है वह ज्ञानी है।
भावार्थ- निश्चयनय से आत्मा कर्ता नहीं है और व्यवहारनय से कर्ता है, ऐसा जो जानता है वह ज्ञानी है। इसी तरह जो पुण्य-पापरूप परिणामों को समझता है वह ज्ञानी है। (८६ और ८७वीं गाथा के बीच)
पुग्गलकम्मणिमित्तं जह आदा कुणदि अप्पणो भावं। पुग्गलकम्मणिमित्तं तह वेददि अप्पणो भावं।।
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