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________________ स्याद्वादाधिकार ४१९ परभावों से भिन्न होता हुआ स्याद्वादी अपने सहज स्वभाव की श्रद्धा से युक्त हो नाश को प्राप्त नहीं होता। भावार्थ- अज्ञानी जीव, परभावों को अपना भाव समझकर उन्हीं में लीन रहता हुआ स्वभाव की महिमा से बिलकुल अपरिचित रहता है, अत: नाश को प्राप्त होता है। परन्तु स्याद्वादी समझता है कि अपने ज्ञानस्वभाव के कारण आत्मा समस्त परभावों से पृथक् है। वास्तव में ज्ञान, ज्ञेयाकार होने पर भी उससे पृथक् वस्तु है। इस प्रकार सहज स्वभाव की प्रतीति को दृढ़ करता हुआ स्याद्वादी नाश को प्राप्त नहीं होता है। यह स्वकीय भाव की अपेक्षा अस्तित्व का ग्यारहवाँ भङ्ग है।।२५७।। शार्दूलविक्रीडितछन्द अध्यास्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्राप्यनिवारितो गतभय: स्वैरं पशुः क्रीडति। स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरा दारूढ: परभावभावविरहव्यालोकनिष्कम्पितः।।२५८।। अर्थ- अज्ञानी एकान्तवादी, अपनी आत्म में सब भावों का होना मानकर शुद्ध-स्वभाव से च्युत होता हुआ सब पदार्थों में स्वच्छन्दतापूर्वक निर्भय हो बिना किसी प्रतिबन्ध के क्रीडा करता है। परन्तु स्याद्वादी अपने स्वभाव में ही सर्वथा आरूढ हुआ परभाव के अभाव का निश्चय होने से निश्चल दशा को प्राप्त हो शुद्ध ही सुशोभित होता है। भावार्थ- अज्ञानी परभावों को निजभाव मानता है इसलिये वह अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत होता हुआ सभी परभावों में स्वच्छन्दतापूर्वक प्रवर्तता है। परभाव बन्ध के कारण हैं, ऐसा उसे भय नहीं होता। परभावों में प्रवृत्ति करने से उसे कोई रोक नहीं सकता। परन्तु स्याद्वाद का ज्ञाता ज्ञानी पुरुष ऐसा समझता है कि मुझमें परभाव का अभाव है यद्यपि मैं परभावों को जानता हूँ तो भी वे मुझमें प्रविष्ट नहीं है, मेरे साथ उनका नित्य तादात्म्य नहीं है। इस प्रकार के दृढ़ श्रद्धान से वह सदा निष्कम्प रहता है और सदा शुद्ध ही शोभायमान रहता है। यह परभाव की अपेक्षा नास्तित्व का बारहवाँ भङ्ग है।।२५८।। शार्दूलविक्रीडितछन्द प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्ज्ञानांशनानात्मता निर्ज्ञानात्क्षणभङ्गसङ्गपतित: प्रायः पशुर्नश्यति। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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