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समयसार
वैचित्र्येऽप्यविचित्रतामुपगतं ज्ञानं स्वत: क्षालितं
पर्यायैस्तदनेकतां परिमृशन् पश्यत्यनेकान्तवित् ।।२५०।। अर्थ- ज्ञेयों के आकार रूप कलङ्क से मलिन ज्ञान में प्रक्षालन की कल्पना करता हुआ अज्ञानी एकान्तवादी एकाकार करने की इच्छा से यद्यपि ज्ञान स्पष्ट ही अनुभव में आ रहा है फिर भी उसकी इच्छा नहीं करता है अर्थात् उसे नष्ट करना चाहता है। वास्तव में जो ज्ञान ज्ञेयाकारों की विचित्रता के होने पर भी अविचित्रता को प्राप्त है तथा स्वत: क्षालित है- उज्जवल है वह ज्ञान पर्यायों की अपेक्षा अनेकता का भी स्पर्श कर रहा है ऐसा अनेकान्त का ज्ञाता देखता है।
भावार्थ- ज्ञेयों के आकार के कारण ज्ञान में जो अनेकरूपता दिखती है उसे कलङ्क समझ एकान्ती धो डालना चाहता है। वह ज्ञान को एकरूप ही करना चाहता है इसलिये अनेकरूपता से युक्त ज्ञान यद्यपि प्रकट अनुभव में आता है तो भी एकान्तवादी उसे नहीं मानता है, उसका नाश करना चाहता है। परन्तु अनेकान्त का ज्ञाता स्याद्वादी ऐसा जानता है कि ज्ञान में यद्यपि ज्ञेयाकारों की विभिन्नता से जायमान अनेकरूपता है तो भी वह एकरूपता को प्राप्त है और इस ज्ञेयाकाररूप कलङ्क से स्वयं रहित है फिर भी पर्यायों की अपेक्षा अनेकरूपता को भी प्राप्त हो रहा है। भिन्न-भिन्न ज्ञेयों को जानने से ज्ञान में जो भिन्न-भिन्न आकार अर्थात् विकल्प आते हैं वे सब ज्ञान की पर्यायें हैं। उन पर्यायो के ऊपर जब लक्ष्य दिया जाता है तब वह ज्ञान अनेकरूप मालूम होता है। यह चौथा अनेकस्वरूप भङ्ग है ।।२५०।।
शार्दूलविक्रीडित प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्थिरपरद्रव्यास्तितावञ्चितः
स्वद्रव्यानवलोकनेन परितः शून्यः पशुर्नश्यति। स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सद्यः समुन्मज्जता
स्याद्वादी तु विशुद्धबोधमहसा पूर्णो भवन् जीवति ।।२५१।। अर्थ- प्रत्यक्षरूप से चित्रित स्फुट और निश्चल परद्रव्य के अस्तित्व से ठगाया हुआ अज्ञानी एकान्तवादी स्वद्रव्य के न दिखने से सम्पूर्णरूप से शून्य हुआ नष्ट होता है। परन्तु स्याद्वादी शीघ्र ही प्रकट होनेवाले निर्मल ज्ञानरूप तेज के द्वारा अच्छी तरह देखकर स्वद्रव्य के अस्तित्व से पूर्ण होता हुआ जीवित रहता है।
भावार्थ- एकान्तवादी अज्ञानी, ज्ञान में ज्ञेय रूप से प्रतिबिम्बित परद्रव्य के अस्तित्व को देखकर ज्ञान को परद्रव्यरूप ही समझने लगता है। ज्ञेय के अतिरिक्त ज्ञान भी कोई द्रव्य है, इस ओर उसका लक्ष्य नहीं जाता। एतावता ज्ञानरूप स्वीय
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