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________________ ४१२ समयसार शार्दूलविक्रीडितछन्द बाह्याथैः परिपीतमुज्झितनिजप्रव्यक्तिरिक्तीभवद् विश्रान्तं पररूप एव परितो ज्ञानं पशोः सीदति। यत्तत्तदिह स्वरूपत इति स्याद्वादिनस्तत्पुन दूंरोन्मग्नघनस्वभावभरतः पूर्णं समुन्मज्जति ।।२४७।। अर्थ- जो बाह्य ज्ञेय पदार्थों के द्वारा सब ओर से पिया गया है, अपनी प्रकटता छूट जाने से जो रिक्त हुआ है, तथा जो सम्पूर्ण से पररूप में ही विश्रान्त हुआ है ऐसा अज्ञानी एकान्तवादी का ज्ञान नष्ट होता है और 'जो तत् है वह स्वरूप से ही तत् है' ऐसा स्याद्वादी का जो ज्ञान है वह अतिशयरूप से प्रकट घनस्वभाव के भार से पूर्ण होता हुआ उन्मग्न होता है-उदय को प्राप्त होता है। भावार्थ- कोई अज्ञानी एकान्तवादी ऐसा मानते हैं कि ज्ञान अनादिकाल से ज्ञेयाकार ही परिणम रहा है और इस तरह परिणम रहा है कि उसकी निजकी प्रकटता छूट गई है अर्थात् ज्ञेय ज्ञेय ही अनुभव में आता है, ज्ञान अनुभव में नहीं आता तथा वह पर से उत्पन्न होने के कारण सर्वथा पररूप में ही विश्रान्त रहता है अर्थात् सर्वथा पराधीन ही रहता है। आचार्य कहते हैं कि पशु के समान अज्ञानी एकान्तवादी का जो तथाकथित ज्ञान है वह नष्ट हो जाता है। परन्तु स्याद्वादी ऐसा मानते हैं कि जो तत् है वह स्वरूप से ही तत् है अर्थात् ज्ञान स्वकीय स्वभाव से ज्ञेयाधीन नहीं है। इसलिये वह अतिशयरूप से प्रकट अपने घनस्वभाव से परिपूर्ण होता हुआ सदा उदित रहता है। यह प्रथम तत्स्व रूप भङ्ग है ।।२४७।। शार्दूलविक्रीडितछन्द विश्वं ज्ञानमिति प्रतयं सकलं दृष्ट्वा स्वतत्त्वाशया भूत्वा विश्वमय: पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते। यत्तत्तत्पररूपतो नो तदिति स्याद्वाददर्शी पुन विश्वाद्भिन्नमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्त्वं स्पृशेत् ।।२४८।। अर्थ- विश्व, ज्ञान है अर्थात् समस्त ज्ञेय ज्ञानमय हैं ऐसा विचारकर समस्त जगत को निजतत्त्व की आशा से देखकर विश्वरूप हुआ अज्ञानी एकान्तवादी, पशु के समान स्वच्छन्द चेष्टा करता है। परन्तु स्याद्वाद को देखने वाला ज्ञानी पुरुष, जो तत् है वह पररूप से तत् नहीं है अर्थात् ज्ञान पररूप से ज्ञान नहीं है किन्तु स्वरूप से ज्ञान है, वह ज्ञान विश्व से भिन्न है और समस्त विश्व से घटित नहीं है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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