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________________ - सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार ३४५ अर्थात् वही वस्तु है। इस प्रकार वस्तु के अंश में भी वस्तुपन का आरोप कर शुद्धनय के लोभ से ऋजुसूत्रनय के एकान्त में स्थिर होकर 'जो जीव करता है वही नहीं भोगता है,अन्य जीव करता है और अन्य भोगता है' ऐसा अवलोकन करता है, उसे मिथ्यादृष्टि ही जानना चाहिये। वृत्तिमान् पदार्थ के जो वृत्तिरूप अंश है उनमें क्षणिकपन होने पर भी वृत्तिमान जो चैतन्यचमत्कार है उसका टङ्कोत्कीर्ण रूप से ही अन्तरङ्ग में प्रतिभास होता रहता है ।।३४५-३४८।। अब इसी अर्थ को कलशा में दिखाते हैं शार्दूलविक्रीडितछन्द आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्ति प्रपद्यान्धकैः कालोपाधिवशादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रेरितैर ___रात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निस्सूत्रमुक्तेक्षिभिः ।।२०७।। अर्थ- सर्वथा शुद्ध आत्मा की इच्छा करनेवाले अज्ञानी बौद्धों ने अतिव्याप्ति को प्राप्त होकर तथा कालकी उपाधि के बल से उस आत्मा में भी अधिक अशुद्धता आती है ऐसा मानकर शुद्ध ऋजुसूत्रनय से प्रेरित हो चैतन्य क्षणिक ही है ऐसी कल्पना की है। सो जिस प्रकार सूत्ररहित केवल मोतियों को देखनेवाले मनुष्य जिस प्रकार हार को छोड़ देते हैं अर्थात् उनकी दृष्टि में मोती ही आते हैं, हार नहीं, उसी प्रकार आश्चर्य है कि उन बौद्धों ने इस आत्मा को छोड.दिया है। अर्थात् उनकी दृष्टि में आत्मा की शुद्धि ऋजुसूत्रनय की विषयभूत समयमात्र-व्यापी पर्याय ही आती है, सर्वपर्यायों में अन्वयरूप से व्याप्त रहनेवाला आत्मा नहीं आता। भावार्थ- आत्मा को सम्पूर्ण रूप से शुद्ध अर्थात् परनिरपेक्ष मानने के इच्छुक बौद्धों ने विचार किया कि यदि आत्मा को नित्य माना जावे तो उसमें काल की अपेक्षा आती है, इसलिये काल की उपाधि के बल से उसमें अधिक अशुद्धता आ जावेगी और ऐसी अशुद्धता आत्मातिरिक्त द्रव्यों में भी पाई जाती है। अत: अतिव्याप्ति दोष आवेगा, इस भय से उन्होंने शुद्ध ऋजुसूत्रनय का विषय जो वर्तमान पर्याय है उतना ही क्षणिक चैतन्य है, ऐसी कल्पना की है। इस कल्पना से उन्होंने मात्र पर्यायों को तो ग्रहण किया है परन्तु उन पर्यायों का आधारभूत जो आत्मा है उसे छोड़ दिया है। जिस प्रकार अनेक मोतियों का एक सूत्र में गुम्फनकर हार बनाया जाता है, यहाँ जो मनुष्य केवल मोतियों को देखते हैं, सूत्र को नहीं देखते, वे हार १. शुद्धर्जुसूत्रे रतैः इत्यपि पाठः। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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