SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ समयसार चैतन्य का आत्मलाभ होता है। रागादिकों का चैतन्य के साथ जो उत्प्लवन (उछलना) देखा जाता है वह चेत्य-चेतकभाव की प्रत्यासति से ही देखा जाता है, एक द्रव्य होने से नहीं। रागादिक भाव चेत्यमान हैं और आत्मा चेतक है। जिस प्रकार प्रदीप्यमान घटादिक प्रदीप की प्रदीपकता को प्रसिद्ध करते हैं उसी प्रकार चेत्यमान रागादिक आत्मा की चेतकता को ही प्रसिद्ध करते हैं, रागादिक रूपता को नहीं अर्थात् जैसे प्रदीप घटपटाादि को प्रकाशित करता है परन्तु घटपटादिरूप नहीं हो जाता, इसी प्रकार आत्मा चेतक पदार्थ है और रागादिक चेत्य पदार्थ हैं। आत्मा रागादिक को चेत्य तो करता है अर्थात् उन्हें अपने ज्ञान का विषय तो बनाता है, परन्तु रागादिकरूप नहीं हो जाता। ऐसा होने पर भी आत्मा और बन्ध में अत्यन्त प्रत्यासत्ति होने से भेद की संभावना का अभाव है। इसलिये दोनों में अनादिकाल से एकत्व का भ्रम होता है किन्तु वह भ्रम प्रज्ञा के द्वारा नियम से छेदा जाता है। भावार्थ- अनादिकाल से इस जीव के कर्मों का बन्ध है और उस कर्मबन्ध के उदय में आत्मा के रागादिकभावों का उदय होता है। उससे यह जीव परपदार्थों में राग और द्वेषभावरूप प्रवृत्ति करता है। जो इसके अनुकूल हैं उनके सद्भाव और जो प्रतिकूल हैं उनके अभाव की चेष्टा करता है। वास्तव में जो रागादिक भाव हैं वे इसके निजभाव नहीं है, मिथ्यादर्शन के उदय में यह उन्हें निजभाव मानता है। परन्तु जिस काल में मिथ्यादर्शन रूप तिमिर का अभाव हो जाता है उस काल में इसकी परपदार्थ में निजत्वबुद्धि मिट जाती है। तब जो परपदार्थ के निमित्त से रागादिक होते हैं उन्हें औपाधिकभाव जानकर उनके पृथक् करने की चेष्टा करता है और मोह के कृश होने पर फिर उनका अस्तित्व ही नहीं रहता। उस समय आत्मा अपने स्वरूप में ही परिणमन करता है। यही कल्याण का पथ है।।२९४।। स्रग्धराछन्द प्रज्ञाछेत्री शितेयं कथमपि निपुणैः पातिता सावधानैः सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्मकर्मोभयस्य। आत्मानं मग्नान्त: स्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानभावे नियमितमभित: कुर्वती भिन्नभिन्नौ।। १८१।। अर्थ- चतुर और सावधान पुरुषों के द्वारा किसी तरह पटकी हुई यह प्रज्ञारूपी पैनी छेनी आत्मा और कर्म दोनों के बीच सूक्ष्म सन्धि-बन्ध पर वेग से पड़ती है और अन्तरङ्ग में स्थिर निर्मल शोभायमान तेज से युक्त चैतन्य के पूर में निमग्न आत्मा को तथा अज्ञानभाव में नियत बन्ध को दोनों ओर पृथक्-पृथक् कर देती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy