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________________ ३०२ समयसार अर्थ- बन्धों के स्वभाव को और आत्मा के स्वभाव को जानकर जो बन्धों में विरक्त होता है वही मोक्ष को करता है। विशेषार्थ- जो हपुरुष निर्विकार चैतन्य चमत्कारमात्र आत्मस्वभाव को और उसमें विकार को करनेवाले बन्धों के स्वभाव को जानकर बन्धों से विरक्त हो जाता है वही पुरुष सम्पूर्ण कर्मों से मोक्ष को कर सकता है। इससे यह नियम किया गया कि आत्मा और बन्ध का पृथक्-पृथक् करना ही मोक्ष का हेतु है।।२९३।। ___ आगे आत्मा और बन्ध पृथक्-पृथक् किसके द्वारा किये जाते हैं, इस आशङ्का का उत्तर कहते हैं जीवो बंधो य तहा छिज्जति सलक्खणेहिं णियएहिं । पण्णाछेदणएण उ छिण्णा णाणत्तमावण्णा।।२९४।। अर्थ- जीव और बन्ध ये दोनों निश्चित स्वकीय-स्वकीय लक्षणों से प्रज्ञारूपी छेनी के द्वारा छेदे जाकर नानापन को प्राप्त होते हैं। विशेषार्थ- आत्मा औरे बन्ध को पृथक्-पृथक् करना कार्य है तथा इस कार्य का कर्ता आत्मा है। जब इसके कारण का विचार किया जाता है तब निश्चयनय से अपने से भिन्न करण का होना असंभव है। अत: भगवती प्रज्ञा ही छेदन करने वाली करण हो सकती है, उसके द्वारा छेद को प्राप्त हुए आत्मा और बन्ध अवश्य ही नानापन को प्राप्त हो जाते हैं। अतएव प्रज्ञा के द्वारा ही आत्मा और बन्ध को पृथक्-पृथक् किया जाता है। भावार्थ-करण दो प्रकार का होता हैएक आभ्यन्तर और दूसरा बाह्य। जहाँ पर भिन्न कर्ता और भिन्न करण होते हैं वहाँ पर बाह्य करण होता है। जैसे देवदत्त परश के द्वारा काष्ठ को छेदता है। यहाँ कर्ता से भिन्न करण है। और जहाँ कर्ता से भिन्न करण नहीं होता वहाँ आभ्यन्तर करण होता है। जैसे देवदत्त मन से सुमेरु को जाता है इस उदाहरण में मन देवदत्त से पृथक् नहीं है। यहाँ पर प्रज्ञा अर्थात् भेद विज्ञानरूप बुद्धि आभ्यन्तर करण है। इस प्रज्ञा को छेनी की उपमा दी जाती है क्योंकि जिस प्रकार छेनीके द्वारा काष्ठादिक के दो भाग पृथक्-पृथक् हो जाते हैं उसी प्रकार प्रज्ञा के द्वारा आत्मा और बन्ध पृथक्-पृथक् हो जाते हैं। उस प्रज्ञारूपी छेनीके द्वारा भिन्न-भिन्न किये गये आत्मा और बन्ध नियम से नानापन को प्राप्त होते हैं। अत: प्रज्ञा ही आत्मा और बन्ध के द्विधा करने में करण है। अब यहाँ पर यह आशङ्का होती है कि जो आत्मा और बन्ध चेत्यचेतक भाव के कारण अत्यन्त प्रत्यासत्ति से एकरूप हो रहे हैं तथा भेदविज्ञान के अभाव से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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