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प्रस्तावना
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यह घोषित करता है कि आत्मा सम्यग्दर्शनादिरूप है। आत्मा प्रमत्त है और आत्मा अप्रमत्त है, इस कथन को भी शुद्धनय स्वीकृत नहीं करता, क्योंकि इस कथन से आत्मा प्रमत्त और अप्रमत्त पर्यायों में विभक्त होता है। वह तो आत्मा को एक ज्ञायक ही स्वीकृत करता है। जीवाधिकार में जीव के निज स्वरूप का कथन कर उसे परपदार्थों
और परपदार्थों के निमित्त से जायमान विभावों से पृथक् निरूपित किया है। नोकर्म मेरा नहीं है, द्रव्यकर्म मेरा नहीं है और भावकर्म भी मेरा नहीं है, इस तरह इन पदार्थों से आत्म-तत्त्व को पृथक् सिद्धकर ज्ञेय-ज्ञायकभाव एवं भाव्य-भावकभाव की अपेक्षा भी आत्मा को ज्ञेय तथा भाव्य से पृथक् सिद्ध किया है। जिस प्रकार दर्पण अपने में प्रतिबिम्बित मयूर से भिन्न है उसी प्रकार आत्मा अपने ज्ञान में आये हुए घटपटादि ज्ञेयों से भिन्न है और जिस प्रकार दर्पण ज्वालाओं के प्रतिबिम्ब से संयुक्त होने पर भी तज्जन्य ताप से उन्मुक्त रहता है,उसी प्रकार आत्मा अपने अस्तित्व में रहते कर्म-कर्मफल के अनुभव से रहित है। इस तरह प्रत्येक परपदार्थ से भिन्न आत्मा के अस्तित्व का श्रद्धान करना जीवतत्त्व के निरूपण का लक्ष्य है। इस प्रकरण के अन्त में कुन्दकुन्दस्वामी ने उद्घोष किया है
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदारूवी। ण वि अस्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणुमित्तं पि।।३८।।
अर्थात् निश्चय से मैं एक हूँ, दर्शन-ज्ञान से तन्मय हूँ, सदा अरूपी हूँ, अन्य परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।
इस सब कथन का तात्पर्य यह है कि यह जीव पुद्गलद्रव्य के संयोग से उत्पन्न हुई संयोगज पर्याय में आत्मबुद्धि कर उनकी इष्ट-अनिष्ट परिणति में हर्षविषाद का अनुभव करता हुआ व्यर्थ ही रागी, द्वेषी होता है और उनके निमित्त से नवीन कर्मबन्धकर अपने संसार की वृद्धि करता है। जब यह जीव परपदार्थों से भिन्न निज शुद्ध स्वरूप की ओर लक्ष्य करने लगता है तब परपदार्थों से इसका ममत्वभाव स्वयमेव दूर होने लगता है। (२) जीवाजीवाधिकार
जीव के साथ अनादिकाल से कर्म और नोकर्मरूप पुद्गलद्रव्य का सम्बन्ध चला आ रहा है। मिथ्यात्वदशा में यह जीव शरीररूप नोकर्म की परिणति को आत्मा की परिणति मानकर उसमें अहंकार करता है, इस रूप ही मैं हूँ, ऐसा मानता है, अत: सर्वप्रथम इसकी शरीर से पृथक्ता सिद्ध की है। उसके बाद ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म और रागादिक भावकों से इसका पृथक्त्व दिखाया गया है। आचार्य
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