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________________ २७६ समयसार का सुख-दुःख देनेवाला जो साता और असाता कर्म है उसे अन्य जीव देने के लिये असमर्थ हैं क्योंकि वह कर्म अपने ही परिणामों से उपार्जित होता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि किसी प्रकार से भी अन्य जीव को अन्य जीव सुख-दुःख नहीं दे सकता। अतएव जो ऐसा मानते हैं कि मैं अन्य जीवों को सुखी और द:खी करता हूँ तथा अन्य जीव मुझे सुखी और दु:खी करते हैं उनका यह अध्यवसायभाव है जो निश्चय से अज्ञान है।।२५४/२५६।। आगे यही भाव कलशा में दिखाते हैं वसन्ततिलकाछन्द सर्वं सदैव नियतं भवति स्वकीय कर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसौख्यम् । अज्ञानमेतदिह यत्तु परः परस्य कुर्यात् पुमान् मरणजीवितदुःखसौख्यम्।।१६८।। अर्थ- सभी काल में प्राणियों के मरण-जीवन-दुःख-सुख आदि जो कुछ विभावपरिणमन है वह सम्पूर्ण स्वोपार्जित कर्म के उदय से होता है और जो ऐसा मानता है कि परपुरुष पर के मरण, जीवन, दुःख और सुख को करता है, इस लोक में यह उसका अज्ञान है। __ भावार्थ- संसार में प्रत्येक प्राणी को जो जीवन, मरण, सुख अथवा दुःख प्राप्त होता है वह उसके कर्मोदय के अनुसार ही प्राप्त होता है। इसमें अन्तरङ्ग कारण सबका अपना-अपना कर्मोदय है। अन्य पुरुष निमित्तकारण हैं। उसे यहाँ गौणकर कथन किया गया है।।१६८।। वसन्ततिलकाछन्द अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यन्ति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति।।१६९।। अर्थ- इस अज्ञानभाव को प्राप्त होकर जो प्राणी पर से पर का मरण, जीवन, दुःख और सुख का अवलोकन करते हैं वे अहंकार से मदोन्मत्त होकर कर्म करने के इच्छुक होते हुए निश्चय से मिथ्यादृष्टि आत्मघाती हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003994
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshprasad Varni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year2002
Total Pages542
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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