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________________ श्रीसुपार्श्वजिनस्तवन तथा पुजल फल आस्यास्पदोष रहित वरूप थिरतारूप जे चारित्र अनंतपर्यायात्मक अकषाटाता अवेदता असंगता परमदमा परममार्द वपरमार्यव परमनिर्लोनता रूप वरूपएकत्व रूपचारित्रधर्म असं ख्यातप्रदेसे व्यापकपणे रह्यो तेहनोआनंद हेत्रीसुपासपनु ताहारे वि षे एटले चारित्रानंद मटीबो तेमाटे पवित्रनिर्मलगे इति ॥ १ ॥ संरक्षणविणनायगे॥ व्यविनाधनवं तहो ॥ जि॥ करतापदकिरियाविना॥ संतअजेयअनंतहो ॥ जि० ॥॥ अर्थ ॥ वलि हेपनुतुमे संरक्षण विनानाथ कहेतां धणीबो एटलेको ई अन्यजीवनी तथाअन्यव्यनी रखवालीकरतानथी केमजे संरक्षण पणो करवो एतमारो धर्मनथी माटेकोईना तमेरक कनथी पण सरण त्राण आधाररूपो मोक्षनाहेतु तेथीनाथबगे: __ वलिषव्य जे धन कंचन परिजन गण मंदिरादिसर्व परिग्रह रहित बो तोपण झानादि खगुण पर्यायरूप अनंतो धन श्रीषनुनेपासेले माटेधं नवंतगे वलि हे अनु तुमाराविषे करतापद कहेतां करतापणो पण ग मन परिसर्पणादिक किटाविना करताबो एटले बीजाने करतापणो ते कियाथकोहोटो अनेतमे अक्रियतां करताबो मुक्तआत्मानिःक्रिटा. एमतत्वार्थटीकामांकझोडे ___ वलि प्रनुजीतुमे संतबो उत्तमगे तप्तपरिणाम रहीतो अजेटा कहे तां रागशेष परीसह वेरीएकरी अजेयो वलिकोईकाले विणसोनही माटे अनंतनो अथवा अनंतपर्याटा माटे अनंतनो ॥ इति ॥ २ ॥ अगमअगोचरअमरतुं ॥ अन्वयझवि समूहहो॥जि० ॥ वरणगंधरसफरसवि णु ॥ निज नोक्तागुणव्यूहहो ॥ जि०॥ श्री॥३॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003991
Book TitleDevchandraji krut Chovishi Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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