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________________ दे०चो० बा० जिनवर पुजारेते निज पूजनारे ॥ प्रगटे अन्यसति ॥ परमानंदविलाशीच्य नुनवेरे ॥ देवचं पदव्यक्ति ॥ पू०॥७॥ अर्थ ॥ जेजिनराजनीपूजानक्तिकरवी तेपोतानी आत्मानी पूज नाकरवी प्रात्मगुणवधारवावे च्यात्मसंपदानी पुष्टीकरवी केमजे जिन सेवनाथकी पोतानाच्यन्वीगुणजे सहजज्ञानानंदादिक अनंतसक्तिते पोषे वधे प्रगटे निरावण्थाय तेजीवपरमानंदनो विलासीय अनुनवे के॰ भोगवे सर्वदेवमांचंश्मासमानजेपद परमात्मता पूर्णता निरावर्ण ता निरामयता तत्वनोगता स्वरूपानंदतारूप तेहनीव्यक्ति के प्रगट ता जेकर्मावर्णे अनादिनी आवृतबे ते सर्वकर्मक्षयेथये अक्रिटा अन वनिता सक्तिप्रगटे सुध्धाये तेमाटे निम्पनजिननी भक्तितेपरमात्मता रूप आत्मसिद्दतानोकारले माटे हेमोकार्थीजीवोतमे श्रीवीतराग अ रिहानीपूजनाते विधि सहित निरभिलाषेतत्वसाध्यतायेकरो एहज उत्तम उपाय इतिश्रीवासपूज्य जिनस्तवनं संपूर्ण ॥ ७ ॥ 0 ॥ अथश्रीविमल जिन स्तवन लिख्यते ॥ २०० दासच्चरदास सी परेकरेजी देशी ॥ विमल जिनविमलतातादरीजी ॥ अवर बीजेनहाय ॥ लघुनदी जिमतिम लंघी एजी || स्वयंभूरमानतराय ॥वि० ॥ २ ॥ 0 अर्थ || हे विमल जिन हेपरमेश्वर साहरी विमलता के निर्मलता के dia जे समस्तव्य कर्म भावकर्मपरानुजायीतादिदोषरहित एहवीनि मलता तेवर के बीजाको बदमस्थजीवनेन कहा के कहिसका यनही सिद्धस्वरूपस्यच्यनंतत्वात् वाचक्रमपरिखितत्वात् चायुष्यच्यल्प 0 0 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003991
Book TitleDevchandraji krut Chovishi Balavbodh
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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