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अपनी बात
-xc:0xवि० सं० २००० का चातुर्मास मेरे शिरच्छत्र पूज्येश्वर आचार्य देष श्रीजिनमणिसागरसूरिजी महाराज का बीकानेर में श्री नाहटाजी के शुभ प्रासाद शुभविलास में हुआ। उस समय मेरी अवस्था १६ वर्ष की थी। पूज्येश्वर गुरुदेव ने अध्ययन के लिये व्यवस्था कर रखी थी। शिक्षक व्याकरण-काव्य आदि का अभ्यास करवाता था । उस समय मैं सिद्धान्तकौमुदी का दूसरा खण्ड पढ़ रहा था; पर बाल्यावस्था के कारण अध्ययन में तनिक भी रुचि नहीं थी और व्याकरण जैसा शुष्क विषय होने के कारण मैं अध्ययन से घबड़ाता था तथा बहाने किया करता था। ऐसी मेरी मानसिक स्थिति और पढ़ाई चोर भावना को देखकर श्री अगरचन्दजी नाहटा ने (जो पूज्येश्वर गुरुदेव के भक्त होने के साथ साथ मुझे विद्वान और क्रियापात्र साधु देखना चाहते थे ) गुरु महाराज की
आज्ञा प्राप्त कर साहित्य की तरफ मेरी रुचि को बढ़ाना प्रारंभ किया। उन्होंने सर्वप्रथम हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि के अभ्यास की ओर मुझे प्रवृत्त किया। मैं भी उस समय ‘पढ़ाई' से विरक्तमना सा था । अतः मुझे भी यह मार्ग रुचिकर प्रतीत हुआ और मैं इस प्रयत्न में अग्रसर हुआ। बड़ों के आशीर्वाद से इसमें मैं सफल भी हुआ । उन्हीं दिनों मैंने नाहटा जी के संग्रह के लगभग ३००० हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची भी तैयार की।
इन्हीं दिनों चातुर्मास में ही गुरुदेव भक्तवर्ग को 'उपधानतप' की तपश्चर्या करवा रहे थे। इसी समय बीकानेर के प्रमुख मन्दिर (चिन्तामणिजी ) के भण्डारस्थ लगभग १२०० प्रतिमाएँ, जो विशिष्ट समय पर भण्डार से बाहर निकाली जाती थी और अष्टाह्निका महोत्सव, शान्तिस्नात्र, रथयात्रादि महोत्सव के साथ पुनः भूमिगृह में विराजमान करदी जाती थी, इस 'उपधानतप' महोत्सव के उपलक्ष में बाहर निकाली गई। वहाँ के दूसरे प्रधान मन्दिर महावीरस्वामी जी के भण्डारस्थ प्रतिमाएँ भी इस समय प्रयत्नपूर्वक निकाली गई थीं।
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