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________________ खाद्य अखाद्य–विवेक - __ आहार सभी प्राणियों एवं मनुष्य के जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक है, किन्तु मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, इसलिए उसे सोचना होगा कि वह क्या खाए और क्या नहीं खाए ? जिस प्रकार आहार के कम मिलने पर शरीर शीघ्र ही दुर्बल, क्षीण और कृश होने लगता है, उसी प्रकार आवश्यकता से अधिक, अभक्ष्य एवं जंकफूड खाने से शरीर अनेक रोगों से ग्रसित भी हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके शारीरिक-संगठन, दैनिक–श्रम और कार्यभिन्नता के अनुसार आहार की भी भिन्न-भिन्न परिमाण में आवश्यकता होती है। हमारा भोजन स्वाद के लिए न होकर स्वास्थ्य के लिए होना चाहिए। महात्मा गांधी कहते थे –'यदि हम आवश्यकता से अधिक खाते हैं, तो वह चोरी का खाते हैं।' आयुर्वेद-शास्त्र में क्षुधा को एक स्वाभाविक रोग माना गया है। आहार इस रोग की औषधि है, परन्तु लोगों ने उसे औषध न मानकर रसनेन्द्रिय की तृप्ति का साधन बना रखा है। भूख लगे चाहे न लगे, लोग दिन भर कुछ न कुछ खाते ही रहते हैं। संसार में दो प्रकार के मनुष्य हैं, एक तो वे, जो जीने के लिए खाते हैं और दूसरे वे, जो खाने के लिए जीते हैं। दूसरे प्रकार के मनुष्यों को सदैव खाने की ही चिन्ता रहती है। पेट भर जाता है, पर उनकी इच्छा नहीं भरती है। दिन भर नाना प्रकार के पदार्थ खाने में ही उनका समय व्यतीत होता है। इस प्रकार के लोगों का जीवन भाररूप बन जाता है और खाद्य-अविवेक के कारण वे कई नई-नई बीमारियों को आमंत्रित करते हैं। भोजन की मात्रा सीमित रखें - स्वस्थ रहने की अभिलाषा सभी जीवों को रहती है। जो रोगों से बचना चाहता है, उसे आहार की मात्रा का अवश्य ध्यान रखना चाहिए। जब तक एक बार का ग्रहण किया हुआ भोजन पच न जाए, तब तक पुनः नहीं खाना चाहिए। कोई पदार्थ इसलिए नहीं खाना चाहिए कि वह बहुत स्वादिष्ट है, या उसके खाने के लिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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