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चैतसिक-आसक्ति ही प्रधान होती है। अतः वह राग-भाव, तृष्णा या आसक्ति कैसे छूटे, यह संज्ञा मुक्ति का उपाय है।
__ प्रस्तुत शोधप्रबंध का सार यही बतलाना है कि संज्ञाओं को जाने, पहचाने और उस पर विजय प्राप्त करने का प्रयास करें। यह असंभव नहीं है कि हम संज्ञाओं से मुक्त न हों। आदमी का व्यक्तित्व परिवर्तनशील है, वह चेतना के स्तर पर संज्ञाओं के आवरण को तोड़ सकता है, अर्थात् इस प्रकार अनासक्त, वीततृष्णा या वीतराग जीवन-दृष्टि का विकास कर अपनी चेतना में विवेकशीलता का विकास कर सकता है। यदि यह सम्भव नहीं होता है तो साधना की बात ही व्यर्थ हो जाएगी, धर्म-साधना का कोई अर्थ ही नहीं रह जाएगा तथा हमारे पुरुषार्थ की भी कोई सार्थकता नहीं होगी।
जैन-धर्मदर्शन की यह मान्यता है कि –'प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सकती है।' परमात्मपद की यह प्राप्ति तृष्णा, राग-द्वेष एवं मोह पर विजय अर्थात् संज्ञाओं पर विजय प्राप्ति के द्वारा ही संभव है। आत्मा परमात्मा बने, हमारी चेतना निराकुल हो सके, यह बताना ही इस शोधप्रबन्ध की उपादेयता है।
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