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अध्याय में माया संज्ञा अर्थात् कपटवृत्ति का स्वरूप, भेद एवं उसके दुष्परिणामों पर चर्चा की गई है साथ ही, माया संज्ञा या कपटवृत्ति पर विजय किस प्रकार से प्राप्त की जाये, यह भी बताने का प्रयास किया गया है।
शोधप्रबंध का नवम अध्याय लोभ-संज्ञा के विवेचन से सम्बन्धित है। मोहनीय कर्म के उदय से चित्त में उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ एक ऐसी मनोवृत्ति है, जिसके वशीभूत होकर व्यक्ति पापों के दलदल में पैर रखने के लिए भी तैयार हो जाता है। स्थानांगसूत्र में लोभ प्रवृत्ति को अमिषावर्त कहा गया है। जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। प्रस्तुत शोध प्रबंध के नवम अध्याय में लोभसंज्ञा से होने वाले दुष्परिणामों को भी बतलाने का प्रयास किया गया है। साथ ही लोभवृत्ति पर विजय के क्या उपाय हो सकते हैं, यह भी खोजने का प्रयत्न किया गया है।
इस शोधप्रबंध का दशम अध्याय लोकसंज्ञा एवं ओघसंज्ञा से सम्बन्धित है। लोक व्यवहार से चेतना का प्रभावित होना लोक संज्ञा है, या ऐसी इच्छा करना जैसे संसार में मेरी पूछपरख हो, मेरी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो और भौतिक सुखों की प्राप्ति हो आदि की अभिलाषा लोक संज्ञा है। उपनिषदों में एवं जैन ग्रन्थ आचारांग, इसिभासियाइं आदि में लोकैषणा का उल्लेख हुआ है। हमारी दृष्टि में लौकेषणा का तात्पर्य लौकिक उपलब्धियों की आकांक्षा से है। इसके साथ ही प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में लोक संज्ञा की प्रासंगिकता पर विचार करने का प्रयास किया गया है। साथ ही लोक संज्ञा के दुष्परिणामों को भी स्पष्ट किया गया है। इसी अध्याय में लोक संज्ञा के साथ-साथ ओघ संज्ञा की भी चर्चा की गई है। प्राणी मात्र में रहने वाली सामान्य अनुकरण की वृत्ति या सामुदायिकता की वृत्ति ओघ संज्ञा है। जो वृत्ति सम्पूर्ण जाति, वर्ग आदि में समान रूप से पाई जाती है, वह वृत्ति ओघ संज्ञा है। जैनाचार्यों ने जनसाधारण की वृत्ति के अनुसार आचरण करने का अथवा लोक प्रचलित व्यवहार का समर्थन करने को ओघ संज्ञा कहा है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के
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