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संज्ञा विवेकशीलता के रूप में
जैसा कि हमने पूर्व में विवेचन किया है कि जैन परम्परा में संज्ञा शब्द चेतना के वासनात्मक और विवेकात्मक दोनों पक्षों के लिए प्रयोग हुआ है । आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक, सुख-दुःख, मोह, शोक और विचिकित्सा - ये सभी संज्ञाएं चेतना के वासनात्मक पक्ष से संबंधित हैं । लोक संज्ञा भी सामान्य लौकिक प्रवृत्तियों से जुड़ी होने से उसका संबंध भी हमारे जैविक चेतना के वासनात्मक पक्ष से ही रहा हुआ है ।
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संज्ञाओं की जो चर्चा जैन परंपरा में मिलती है, उसमें ओघ और धर्म - ये दो संज्ञाएं ही ऐसी हैं, जिनका संबंध हम चेतना के विवेकात्मक पक्ष से जोड़ सकते हैं । यद्यपि हमने पूर्व में सूचित किया है कि यदि हम ओघसंज्ञा को सामान्य प्रवृत्ति के रूप में और धर्मसंज्ञा को प्राणी स्वभाव के अर्थ में ग्रहण करते हैं, तो इनका संबंध भी चेतना के वासनात्मक पक्ष से होगा, किन्तु ओघ का अर्थ विवेकपूर्ण आचरण और धर्म का अर्थ विभाव से स्वभाव में स्थित होने की प्रक्रिया मानें, तो इन दोनों का संबंध विवेक से मानना होगा ।
यद्यपि जैनदर्शन में संज्ञा को मूलतः जैविक वासनात्मक पहलू के रूप में विवेचित किया गया है, किन्तु जैन दर्शन की यह भी मान्यता रही है कि इन जैविक वासनात्मक प्रवृत्तियों के ऊपर नियंत्रण या विजय प्राप्त करने और अपने सहज चेतन स्वभाव में अर्थात् ज्ञातादृष्टाभाव में स्थित रहने का सामर्थ्य मनुष्य में है । जैन - आचार शास्त्र की विशेषता यही है कि उसने सदैव वासना पर विवेक का अंकुश रखा है। प्रत्येक संज्ञा के विवेचन में हमने यह दिखाया है कि उन संज्ञाओं पर विजय कैसे प्राप्त करें । सामान्यतः, जो संज्ञाएँ जीवन व्यवहार के वासनात्मक पक्ष की उद्दीपक हैं, उन पर तो नियंत्रण आवश्यक है।
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