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________________ 541 मैकड्यूगल की मूलप्रवृत्तियों से देखी जा सकती है, जैसे -जैनदर्शन में जो आहारसंज्ञा बताई गई है, उसे मैकड्यूगल ने भोजन की खोज नामक मूलप्रवृत्ति माना है और उसका आधार 'भूख' संवेग को बताया है। जैन-दर्शन के अनुसार, सभी संसारी-जीवों में आहारसंज्ञा होती है, मात्र वीतराग केवली-परमात्मा में आहारसंज्ञा को लेकर मतभेद हैं। दिगम्बर– परम्परा उनमें आहारसंज्ञा का अभाव मानती है, श्वेताम्बर उनमें भी आहार-ग्रहण मानते हैं। उसी प्रकार, मैकड्यूगल की भागने की मूलप्रवृत्ति का संबंध जैनदर्शन की भयसंज्ञा से जोड़ा जा सकता है। मैकड्यूगल ने भी इस भागने की प्रवृत्ति का आधार 'भय' का संवेग ही माना है। इसी क्रम में, जैनदर्शन की मैथुनसंज्ञा को मैकड्यूगल की यौनप्रवृत्ति के समरूप माना जा सकता है। मनोविज्ञान ने इसका संबंध कामुकता के संवेग से माना है। यौनप्रवृत्ति या कामुकता वस्तुतः मैथुनसंज्ञा की ही अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार, जैनदर्शन परिग्रहसंज्ञा की बात करता है, उसे मैकड्यूगल ने संग्रह की प्रवृत्ति माना है। मनोवैज्ञानिक ने इसे संग्रह-भावरूप संवेग बताया है। जैनदर्शन में संज्ञाओं का जो दसविध वर्गीकरण मिलता है, उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों को भी संज्ञा के रूप में वर्गीकृत किया गया है। जैन-दर्शन जिसे क्रोध कहता है, मैकड्यूगल ने उसे आक्रामकता की मूलप्रवृत्ति माना है, मनोविज्ञान ने 'इसका' संवेग क्रोध माना है। जैनदर्शन में जिसे मानसंज्ञा कहा गया है, उसे मैकड्यूगल ने आत्मप्रकाशन की मूलप्रवृत्ति माना है। मानसंज्ञा अहंकार का ही एक रूप है और आत्मप्रकाशन भी अहंकार की ही अभिव्यक्ति का एक माध्यम जैनदर्शन ने जिसे मायासंज्ञा कहा है, वस्तुतः वह व्यक्ति में रही हुई छिपाने की वृत्ति का ही परिणाम है, अर्थात् रूप में तो नहीं, किन्तु मैकड्यूगल की शरणागत की प्रवृत्ति से इसका संबंध देखा जा सकता है। वस्तुतः, व्यक्ति में अपने को बचाने की भावना है, शरणागतता और माया/कपटवृत्ति भी गहराई में उससे जुड़ा हुआ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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