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________________ कायप्रश्रंब्धि (प्रसन्नता), 9. चित्तप्रश्रब्धि (चित्तों का शान्त होना), 10. कायलघुता ( अहंकार का भाव), 11. चित्तलघुता, 12. कायमृदुता, 13. चित्तमृदुता, 14. कायकर्मण्यता, 15, चित्तकर्मण्यता ( चित्त - सरलता ), 16. कायप्रागुण्य (समर्थता), 17. चित्तप्रागुण्य, 18. कायऋजुता, 19. चित्तऋजुता, 20. सम्यक् वाणी, 21. सम्यक् कर्मान्त, 22. सम्यक् आजीव, 23. करुणा, 24 मुदिता और 25 अमोह (प्रज्ञा) । ' इस प्रकार ये बावन चैतसिक-धर्म कुशल, अकुशल और अव्याकृत-कर्मों के प्रेरक हैं। 534 जहाँ तक जैनदर्शन की संज्ञाओं का प्रश्न है, वे भी कर्म की प्रेरक हैं। इन बावन चैतसिकों में जो चौदह अकुशल चैतसिक हैं, उनकी तुलना हम जैनदर्शन की संज्ञाओं से कर सकते हैं । इन चौदह चैतसिकों में मोह, लोभ, मान और विचिकित्सा ये चार अकुशल चैतसिक जैनदर्शन की सोलह संज्ञाओं की अवधारणा में पाए जाते हैं। जैनदर्शन की संज्ञाओं में आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, सुख, दुःख, शोक के नाम यद्यपि इन चैतसिकों में नहीं पाए जाते हैं, किन्तु गहराई से विचार करने पर ये सभी बौद्धधर्म में भी मान्य हैं। जहाँ तक जैनधर्म में लोक, ओघ और धर्म-संज्ञा का प्रश्न है, उनमें से धर्म और लोक को हम कुशल चैतसिकों में मान सकते हैं । जैनदर्शन की संज्ञा की अवधारणा और बौद्धदर्शन के चैतसिकों की अवधारणा का सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि दोनों को ही कर्म का प्रेरक माना गया है। जैनदर्शन में जो षोडषविध संज्ञाओं का वर्गीकरण मिलता है, उसमें धर्म और ओघ -संज्ञा को कुशल चैतसिकों में और शेष को अकुशल चैतसिकों में माना जा सकता है। क्योंकि बौद्धदर्शन में शोभन या कुशल चैतसिकों में श्रद्धा और जो 5 सद्धा सति हि ओतप्पं अलोभो अदोंसो तत्र मंज्झत्तता कायप्पस्सद्धि चित्तप्पस्सदि कायलहुता चित्तला कायमुदुता चित्तमुदुता कायकम्मञ्जता चितकम्मन्नता 'कायपागुञ्ज्ञता चित्तपागुञन्नता, कायुजुकता चित्तुजुकता चेति एकनवीसति मे चेतसिका सोभन साधारणा नाम । - अभिधम्मत्थ संगहो, चेतसिक काण्डो । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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