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कभी भी अपना साम्राज्य स्थापित नहीं कर सकता। शोक पर विजय हम मन की दृढ़ता और मजबूत विचारों के द्वारा कर सकते हैं, क्योंकि व्यक्ति शोक तभी करता है, जब उसको निराशा और असफलता प्राप्त होती है। वह असफलता को ही अपना मानकर निरूत्साह होकर शोक सागर में डूब जाता है, जैसे
"गणधर गौतम का भगवान् महावीर के प्रति असीम अनुराग था । गौतम जब देवशर्मा को प्रतिबोध देने के बाद वापस पावापुरी की ओर आ रहे थे, उस समय जाते हुए देवताओं के मुखों से तथा अवरुद्ध कण्ठों से एक ही शब्द निकल रहा था - "आज ज्ञान का सूर्य अस्त हो गया है, प्रभु महावीर निर्वाण को प्राप्त हो गए हैं। अन्तिम दर्शन करने शीघ्र चलो।" देवों के मुख से निःसृत उक्त शब्द गौतम के कानों में पहुंचे और वे सहसा निराधार, निरीह, असहाय बालक की भांति सिसकियाँ भरते हुए विलाप करने लगे
"प्रभु तो पधार गए, अब मेरा कौन है ?" अन्तर की गहरी वेदना उभरने लगी, दिशाएँ अन्धकारमय प्रतीत होने लगी और चित्त में शून्यता व्याप्त होने लगी । तनिक जाग्रत होते ही उपालम्भ के स्वरों में वे बोल उठे
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“हे प्रभु! आपने मुझ रंक पर यह असहनीय वज्रपात कैसे कर डाला ? मुझे मझधार में छोड़कर कैसे चल दिए ? अब मेरा हाथ कौन पकड़ेगा ? मेरा क्या होगा ? मेरी नौका कौन पार लगाएगा ? हे प्रभो! आपने यह क्या किया ? मेरे साथ कैसा अन्याय कर डाला ? विश्वास देकर विश्वास भंग क्यों किया ? अब मेरे प्रश्नों का उत्तर कौन देगा ? मेरी शंकाओं का समाधान कौन करेगा ? मैं किसे प्रभु कहूँगा? अब मुझे है गौतम! कहकर प्रेम से कौन बुलाएगा ? हे करूणासिन्धु! मेरे किस अपराध के बदले आपने ऐसी कठोरता बरतकर अन्त समय में मुझे दूर कर दिया ? 90
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1)
भगवतीसूत्र - 14/7
2 ) भगवान् महावीर, उपाध्याय केवल मुनि, पृ. 192
1)
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गौतमरासः परिशीलन, महोपाध्याय विनयसागर, पृ. 56-61 श्रीकल्पसूत्र
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