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चाहिए, बल्कि उससे दूर रहना चाहिए, तब मोह का जीव पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, वह मोह बार-बार प्रयत्न करके हार जाएगा। जिस तरह कोई व्यक्ति आकाश को मलिन करने के लिए कीचड़ उछाले, तो उससे आकाश मलिन नहीं होता, ठीक उसी तरह, मोह द्वारा उछाले गए कीचड़ से आत्मा मलिन नहीं होती और ना ही वह पाप के अधीन होती है।
कहा गया है
पूर्णतया असमर्थ हैं।
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अराग- अद्वेष के कवच को मोह के तीक्ष्ण तीर भी भेदने में
पश्यन्नेव
परद्रव्य-नाटकं प्रतिपाटकम् ।
भवचक्रपुरस्थोऽपि, नाडमूढः परिखिद्यते ।। 4 ।।
अनादि-अनंत कर्म - परिणामरूप राजा की राजधानी - स्वरूप भवचक्र नामक नगर में वास करते हुए भी एकेन्द्रिय आदि नगर की गली-गली में पर-द्रव्य के जन्म-जरा और मरणरूपी नाटक को देखती हुई मोहविमुक्त आत्मा दुःखी नहीं होती ।
विकल्पचषकैरात्मा, पीतमोहाऽऽसवो ह्ययम् ।
भवोच्चतालमुत्ताल-प्रपञ्चमधितिष्ठति ।। 5 ।।
विकल्परूपी मदिरा - पात्रों से सदा मोह-मदिरा का पान करनेवाला यह जीवात्मा, सचमुच जहाँ हाथ ऊँचे कर तालियाँ बजाने की चेष्टा की जाती है, वैसे संसाररूपी मदिरालय का आश्रय लेता है ।
मोह-मदिरा का नशा, अर्थात् वैषयिक - सुखों की चाह, उसमें अटका जी न जाने कैसे उन्मत्त, पागल बन मौजमस्ती करता है। जब तक मोह-मदिरा के चंगुल से आजाद न हुआ जाए, विकल्प के मदिरा - पात्र फेंक न दिए जाएं, तब तक निर्विकार ज्ञानानन्द में स्थिरभाव असंभव है। जब तक ज्ञानानन्द में स्थिर न हों, तब तक परब्रह्म में मग्न होना तो दूर रहा, उसका स्पर्श तक कठिन है।
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स्थिरता के पात्र से ज्ञानामृत का पान करने वाली जीवात्मा ही विवेकी, विशुद्ध व्यवहारी बन सकती है।
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