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________________ किया जा सकता है, वैसे ही भेदज्ञान द्वारा मोह पर विजय प्राप्त कर आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न माना जा सकता है। 3. मोह को तोड़ने के लिए एकत्व - भावना जिसका जैसा स्वभाव है, उसको उसी रूप में न समझना मोह है और जिसका जैसा स्वभाव है, उसको उसी स्वरूप में समझना ही मोक्षमार्ग की उत्तम सीढ़ी है। अष्ट कर्मों में सबसे खतरनाक मोह ही है । अगर मोहनीय कर्म पर विजय प्राप्त हो जाए तो ऐसा मानना चाहिए कि सेनापति पर नियंत्रण स्थापित हो गया है। जिस सेना का सेनापति नियंत्रण में आ जाए, उस सेना के पाँव उखड़ने में समय नहीं लगता है । दुःखमय संसार को सुखमय मानकर उसमें आसक्त रहने का मुख्य कारण मोहनीय - कर्म का ही परिणाम है। 504 “एगोहं नत्थि मे कोई नाहमनस्स कस्सवि । -63 मैं एकाकी हूँ, संसार के सारे संबंध नाशवान हैं, इस प्रकार की भावना मोह बंधन को तोड़ने के लिए खड्ग के समान है । 4. अकेला आया हूँ, अकेला जाऊँगा, इस एकत्व - भावना से मोह पर विजय पाएं - -- मोह को जीतने के लिए यह भाव सदा रखना चाहिए कि 'अकेला आया हूँ अकेला जाऊँगा । जब यह बात मंत्ररूपेण व्यक्ति के जीवन में रम जाए, तो मोह का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा । व्यक्ति अकेला ही गर्भ में उत्पन्न होता है और अपना शरीर बनाता है, वह जन्मता भी अकेला है, क्रमशः बाल, किशोर, युवान और वृद्ध भी अकेला ही होता है, अकेला ही रोग-शोक भोगता है, अकेला ही संताप - वेदना सहता है और अकेले ही मरता है, अकेला ही नरक के दुःख सहन करता है, नरक में 63 'आवश्यकसूत्र, गाथा 7 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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